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गांधीजी का जीवनधर्म
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मुख्यतः साम्राज्य रहा । भगवान बुद्ध ने अपने जीवन तथा उपदेश के द्वारा लोकसंग्रह के जो बीज बोये थे वे आगे जाकर महायान के रूप में विकसित हुए । महायान अर्थात् अन्य लोगों के लौकिक एवं लोकोत्तर कल्याण हेतु अपने आप को मिटा देने की वृत्ति, तो दूसरी ओर महायान की इस भावना के प्रबल प्रवाह के कारण अथवा स्वतंत्र रूप से कदाचित् किसी सांख्यानुयायी दीर्घदृष्टा विचारक ने उन दिनों पर्याप्त प्रतिष्ठाप्राप्त तथा विस्तीर्ण हो रहे वासुदेव धर्म को केन्द्रस्थ बनाकर आज पर्यंत चल रहे प्रवृत्त - निवृत्ति के संघर्ष का समाधान कर के ऐसा सिद्धांत स्थापित किया कि कोई भी समाजगामी धर्म दुन्यवी निवृत्ति - बाह्यनिष्क्रियता पर टिक नहीं सकता । धर्ममय जीवन के लिए भी प्रवृत्ति अनिवार्य है । साथ साथ उसने यह भी स्थापित किया कि कोई भी प्रवृत्ति समाज के लिए तब ही कल्याणकारी सिद्ध होती है अगर वह वैयक्तिक वासनामूलक न होने के कारण स्वार्थ से पर हो ।
निवृत्तिलक्षी आचार
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अहिंसा तथा अन्य तन्मूलक सभी आचारों की प्रथम भूमिका निवृत्तिलक्षी होने के कारण उसकी परिभाषा भी निवृत्तिलक्षी ही थी जो आगे चल कर बौद्ध परंपरा तथा वासुदेव परंपरा के प्रभाव के कारण प्रवृत्तिलक्षी एवं लोकसंग्रहपरायण बनी । अहिंसा का अर्थ केवल अभावात्मक न रहा, उसमें विधायक प्रवृत्ति भी जुड़ गई । चित्त में से रागद्वेष को दूर करने के पश्चात् अगर उसमें प्रेम जैसे भावात्मक तत्त्व को स्थान प्राप्त न हो तो खाली पड़ा हुआ वह चित्त पुनः रागद्वेष के बादलों से घिर जायेगा ऐसा सिद्ध हुआ। उसी प्रकार केवल मैथुनविरमण में ब्रह्मचर्य का पूर्ण अर्थ न स्वीकृत होने पर उसका अर्थ विस्तृत हुआ और ऐसा सिद्ध हुआ कि ब्रह्म में अर्थात् सर्व भूतों में स्वयं को और स्वयं में सर्व भूतों को स्थित मान कर आत्मोपममूलक प्रवृत्ति में मग्न रहना वही सच्चा ब्रह्मचर्य है । इस अर्थ में से मैत्री, करुणा आदि भावनाओं का अर्थ भी विस्तीर्ण हुआ और श्री संपूर्णानंदजी ने अपने अंतिम पुस्तक चिद्विलास में कहा है उस प्रकार इन भावनाओं को ब्रह्मविहार माना गया। मैथुन विरमण – (मैथुन का परित्याग) तो इस प्रकार के भावात्मक ब्रह्मचर्य का अंग बना रहा ।
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जब निवृत्तिगामी परिभाषाओं को प्रवृत्ति पर भी लागू किया जाने लगा तब उसके प्रभाव से जैन परंपरा भी पूर्णतः अलिप्त तो न रह सकी, परंतु उसमें साधु