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जैन धर्म का प्राण
साहित्य रचा नहीं है, जब कि जैन परंपरा के विद्वानों ने उसके अंगभूत स्याद्वाद, नयवाद आदि के बोधक और समर्थक विपुल स्वतंत्र साहित्य का निर्माण किया है। अहिंसा
हिंसा से निवृत्त होना ही अहिंसा है। यह विचार तब तक पूरा समझ में आ नही सकता जब तक यह न बतलाया जाय कि, हिंसा किस की होती है तथा हिंसा कौन व किस कारण से करता है और उसका परिणाम क्या है। इसी प्रश्न को स्पष्ट समझाने की दृष्टि से मुख्यतया चार विद्याएँ जैन परंपरा में फलित हुई हैं - (१) आत्मविद्या (२) कर्मविद्या (३) चरित्रविद्या और (४) लोकविद्या। इसी तरह अनेकांत दृष्टि के द्वारा मुख्यतया श्रुत विद्या और प्रमाण विद्या का निर्माण व पोषण हुआ है। इस प्रकार अहिंसा, अनेकांत और तन्मूलक विद्याएँ ही जैन धर्म का प्राण है जिसपर आगे संक्षेप में विचार किया जाता है। आत्मविद्या और उत्क्रांतिवाद
प्रत्येक आत्मा चाहे वह पृथ्वीगत, जलगत या वनस्पतिगत हो या कीट-पतंग पशु-पक्षी रूप हो या मानव रूप हो यह सब तात्विक दृष्टि से समान है । यही जैन आत्मविद्या का सार है (सर्वात्म में समदृष्टि दो - श्रीमद् राजचन्द्र)। समानता के इस सैद्धांतिक विचार को अमल में लाना - उसे यथासंभव जीवन के व्यवहार के प्रत्येक क्षेत्र में उतारने का अप्रमत्त भाव से प्रयत्न करना यही अहिंसा है। आत्मविद्या कहती है कि यदि जीवन- व्यवहार में साम्य का अनुभव न हो तो आत्मसाम्य का सिद्धान्त कोरा वाद मात्र है। समानता के सिद्धान्त को असली बनाने के लिए ही आचारांग सूत्र के अध्ययन में कहा गया है कि जैसे तुम अपने दुःख का अनुभव करते हो वैसा ही पर दुःख का अनुभव करो। अर्थात् अन्य के दुःख का आत्मीय दुःख रूप से संवेदन न हो तो अहिंसा सिद्ध होना संभव नहीं।
जैसे आत्म समानता के तात्त्विक विचार में से अहिंसा के आचार का समर्थन किया गया है वैसे ही उसी विचार में से जैन परम्परा में यह भी आध्यात्मिक मंतव्य फलित हुआ है कि जीवगत शारीरिक, मानसिक आदि वैषम्य कितना ही क्यों न हो पर आगंतुक है - कर्ममूलक है, वास्तविक नहीं है । अतएव क्षुद्र से क्षुद्र अवस्था में पड़ा हुआ जीव भी कभी मानवकोटि में आ सकता है और मानव कोटिगत जीव भी