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लेखांक ७
करुणामय प्रज्ञामूर्ति का महाप्रस्थान
पू. बापू के समग्र जीवन की छोटी-बड़ी समस्त प्रवृत्तियों के केवल दो ही प्रेरक तत्त्व थे इस बात की प्रतीति चिंतन करनेवाले को अवश्य होगी। इन दो तत्त्वों में प्रथम तत्त्व है करुणा तथा दूसरा तत्त्व है प्रज्ञा । प्राणीमात्र में और विशेषतः मनुष्य में न्यूनाधिक अंश में करुणा अवश्य होती है और कुछ लोगों में - कुछ विशिष्ट व्यक्तियों में प्रज्ञा भी होती है, परंतु बापू की करुणा एवं उनकी प्रज्ञा विश्व की वर्तमान एवं भूतकाल की विभूतियों से भी स्पष्ट रूप से भिन्न प्रकार की प्रतीत होती है । साधारण मनुष्य अपने अल्प दुःख को भी सहन नहीं कर सकते हैं और इस कारण से वे अपने दुःख को समझने तथा उसके निवारण के लिए यथा संभव सब प्रयत्न करते हैं, जबकि अन्य लोगों के दुःख को हज़म कर जाते हैं ! अर्थात् । अन्य लोग इतने दुःखी है ऐसा देखने पर भी उस दुःख का निवारण करने की भावना बुद्धि उनके मन में जाग्रत नहीं होती। लेकिन कुछ असाधारण कक्षा के संत अपने दुःख की ही तरह दूसरे लोगों के दुःख को हज़म नहीं कर सकते, सहन नही कर सकते।
अतः जिस प्रकार से वे अपने दुःख के निवारण के लिए प्रयत्न करें उसी प्रकार दूसरों के दुःख के निवारण के लिए भी प्रयत्न करते हैं । परंतु उनके ये प्रयत्न तथा परदुःख निवारण की उत्कट इच्छा भी मर्यादित होती है, क्यों कि यह प्रयत्न तथा इच्छा अपने जीवन का बलिदान देने की भावना के साथ या अपने जीवन को दाँव पर लगा देने की तैयारी के साथ नहीं किये जाते हैं, जब कि पू. बापू का मानस बिलकुल अलग प्रकार का था। वे प्रत्येक व्यक्ति के दुःख को देख कर उस दुःख का कारण खोजते, उसके निवारण के उपाय खोजते तथा उन उपायों को कार्यान्वित करने-कराने के लिए इतना भगीरथ प्रयत्न करते तथा अपने प्रयत्नों की सफलता के