Book Title: Pragna Sanchayan
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

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Page 137
________________ करुणामय प्रजामूर्ति का महाप्रस्थान लिए कठोर परिश्रम करते जिसके कारण कभी कभी उनका समग्र जीवन दाँव पर लग जाता था। एक दूसरी दृष्टि से देखें तो भी ऐसा लगता है कि बापू की करुणा अन्य किसी भी व्यक्ति की करुणा से भिन्न प्रकार की थी। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो दूसरों का शारीरिक - आधिभौतिक दुःख सहन नहीं कर सकते और उस दुःख के निवारण के लिए यथा संभव सब कुछ करते हैं । तो कुछ लोग ऐसे करुणाशील भी होते हैं जो दूसरों के मानसिक-आधिदैविक दुःख को आधिभौतिक दुःख से अधिक महत्व देते हुए उसके निवारण पर अधिक ज़ोर देते हैं। तीसरे प्रकार के कुछ करुणाशील ऐसे संत भी होते हैं जो सर्व दुःखों की जड़ रूप तृष्णा जैसी वासनाओं को ही आध्यात्मिक दुःख मान कर उसके निवारण के लिए पुरुषार्थ करते हैं । परंतु बापूकी करुणा ऐसी किसी मर्यादा से बद्ध नहीं थी ऐसा उनकी संपूर्ण जीवनकथा से सिद्ध होता है । बापू के तो जन्म एवं मृत्यु दोनों ही मानों सब के आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक दुःख के निवारण हेतु ही हुए थे। मृत्यु का वरण भी मानों उन्होंने इसी ध्येय की सिद्धि हेतु किया था। इसीलिए उनकी करुणा महाकरुणा की - उच्चतम कक्षा की कोटि की करुणा थी ऐसा मानना ही होगा। ऋतंभरा प्रज्ञा और गाँधीजी वैसे तो सच्चे कवियों, लेखकों, कलाकारों तथा संशोधकों में किसी न किसी प्रकार की प्रज्ञा होती ही है; परंतु योगशस्त्र में जिसे 'ऋतंभरा' कहा जाता है उस प्रकार की प्रज्ञा प्रज्ञावान माने जानेवाले वर्ग में भी महद् अंश में होती ही नहीं है । ऋतंभरा प्रज्ञा की विशिष्टता यह है कि वह सत्य के अंशया असत्य की छाया को भी वह सहन नहीं कर सकती है । जहाँ कहीं असत्य, अप्रामाणिकता या अन्याय दिखाई देता है वहाँ वह प्रज्ञा पूर्ण रूप से प्रज्वलित हो उठती है - सुलग उठती है और उस अन्याय को मिटा देने के दृढ़ संकल्प में ही परिणत होती है। बापू की प्रत्येक प्रवृत्ति उनकी ऋतंभरा प्रज्ञा का प्रमाण है और उसी कारण से, उनकी प्रज्ञा को भी महाप्रज्ञा के रूप में स्वीकार करना पड़ता है। प्रश्न यह है कि बापू भी हमारी तरह मिट्टी के ही बने हुए थे । उनका देह-जन्म भी दूसरे मनुष्यों की तरह किसी देश में - किसी एक कुल में ही हुआ था, फिर अन्य

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