Book Title: Pragna Sanchayan
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

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Page 123
________________ जैन संस्कृति का हृदय विचार नहीं करता । अत एव इस वर्ग को एक मात्र काम-पुरुषार्थी या बहुत हुआ तो काम और अर्थ उभयपुरुषार्थी कह सकते हैं। प्रवर्तक-धर्म दूसरा विचारक वर्ग शारीरिक जीवनगत सुख को साध्य तो मानता है पर वह मानता है कि जैसा मौजूदा जन्म में सुख संभव है वैसे ही प्राणी मर कर फिर पुनर्जन्म ग्रहण करता है और इस तरह जन्मजन्मान्तर में शारीरिक-मानसिक सुखों के प्रकर्ष-अपकर्ष की श्रृंखला चल रही है। जैसे इस जन्म में वैसे ही जन्मान्तर में भी हमें सुखी होना हो, या अधिक सुख पाना हो, तो इसके वास्ते हमें धर्मानुष्ठान भी करना होगा। अर्थोपार्जन आदि साधन वर्तमान जन्म में उपकारक भले ही हों, पर जन्मान्तर के उच्च और उच्चतर सुख के लिए हमें धर्मानुष्ठान अवश्य करना होगा। ऐसी विचार-सरणी वाले लोग तरह-तरह के धर्मानुष्ठान करते थे और उसके द्वारा परलोक तथा लोकान्तर के उच्च सुख पाने की श्रद्धा भी रखते थे। यह वर्ग आत्मवादी और पुनर्जन्मवादी तो है ही पर उसकी कल्पना जनम-जन्मान्तर में अधिकाधिक सुख पाने की तथा प्राप्त सुख को अधिक-से-अधिक समय तक स्थिर रखने की होने से उसके धर्मानुष्ठानों को प्रवर्तक-धर्म कहा गया है। प्रवर्तक धर्म का संक्षेप में सार यह है कि जो और जैसी समाज व्यवस्था हो उसे इस तरह नियम और कर्तव्य-बद्ध बनाना कि जिससे समाज का प्रत्येक सभ्य अपनी-अपनी स्थिति और कक्षा में सुख लाभ करे और साथ ही ऐसे जन्मान्तर की तैयारी करे कि जिससे दूसरे जन्म में भी वह वर्तमान जन्म की अपेक्षा अधिक और स्थायी सुख पा से। प्रवर्तक-धर्म का उद्देश्य समाज व्यवस्था के साथ-साथ जन्मान्तर का सुधार करना है, न कि जन्मान्तर का उच्छेद। प्रवर्तक धर्म के अनुसार काम, अर्थ और धर्म, तीन पुरुषार्थ हैं। उसमें मोक्ष नामक चौथे पुरुषार्थ की कोई कल्पना नहीं है। प्राचीन ईरानी आर्य जो अवस्ता को धर्मग्रन्थ मानते थे और प्राचीन वैदिक आर्य जो मन्त्र और ब्राह्मणरूप वेद भाग को ही मानते थे, वे सब उक्त प्रवर्तक-धर्म के अनुयायी हैं । आगे जाकर वैदिक दर्शनों में जो मीमांसा-दर्शन नाम से कर्मकाण्डी दर्शन प्रसिद्ध हुआ वह प्रवर्तक-धर्म का जीवित रूप है।

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