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प्रज्ञा संचयन
जैनदर्शन ऐसा कहता है कि अहिंसा केवल स्थूल आचार नही है, परंतु वह शुद्ध विचार के परिपाक स्वरूप अवतरित जीवनोत्कर्षक आचार है।
ऊपर निरूपित अहिंसा के सूक्ष्म और वास्तविक रूप में से कोई भी बाह्याचार जन्मा हो अथवा उस सूक्ष्म रूप की पुष्टि हेतु कोई आचार निर्मित हुआ हो तो उस का अहिंसा के रूप में जैन तत्त्वज्ञान में स्थान है। इससे विपरीत, स्पष्ट रूप से, दिखाई दे रहे किसी भी अहिंसामय आचार या व्यवहार के मूल में यदि अहिंसा का उपर्युक्त आंतरिक तत्त्व सम्बन्ध न रखता हो तो वह आचार और वह व्यवहार जैन दृष्टि से अहिंसा है या अहिंसा के पोषक है ऐसा कहा नहीं जा सकता।
यहाँ जैन तत्त्वज्ञान सम्बन्धित विचार में प्रमेयचर्चा जान बुझकर ही विस्तृत नहीं की है। केवल तद्विषयक जैन विचारधारा का संकेत किया है। आचार के विषय में भी किसी बाहरी विचार और संविधान संबंधित चर्चा सकारण ही नहीं की है। परंतु आचार के मूल तत्त्वों की जीवनशोधन के रूप में सहज अल्पचर्चा की है, जिसे जैन परिभाषा में, आस्रव, संवर आदि तत्त्व कहे जाते हैं। आशा है कि यह संक्षिप्त वर्णन जैन दर्शन की विशेष जिज्ञासा उत्पन्न करने में कुछ सहायरूप होगा।
- प्रबुद्ध जैन १५.०६.१९४६