________________
प्रज्ञा संचयन
वैषम्य और साम्य दृष्टि
ब्राह्मण और श्रमण परंपराओं के बीच छोटे-बड़े अनेक विषयों में मौलिक अंतर हैं, पर उस अंतर को संक्षेप में कहना हो तो इतना ही कहना पर्याप्त है कि ब्राह्मण-वैदिक परंपरा वैषम्य पर प्रतिष्ठित है, जब कि श्रमण परंपरा साम्य पर प्रतिष्ठित है। यह वैषम्य और साम्य मुख्यतया तीन बातों में देखा जाता है - (१) समाजविषयक (२) साध्यविषयक (३) प्राणीजगत् के प्रति दृष्टिविषयक । समाज विषयक वैषम्य का अर्थ है कि समाजरचना में तथा धर्माधिकार में वर्ण का जन्मसिद्ध श्रेष्ठत्व व मुख्यत्व तथा इतर वर्णों का ब्राह्मण की अपेक्षा कनिष्ठत्व और गौणत्व। ब्राह्मण धर्म का वास्तविक साध्य है अभ्युदय, जो ऐहिक समृद्धि, राज्य
और पुत्र,पशु आदि नानाविध लाभों में तथा इन्द्रपद, स्वर्गीय सुख आदि नानाविध पारलौकिक फलों के लाभों में समाता है। अभ्युदय का साधन मुख्यतया यज्ञधर्म अर्थात् नानाविध यज्ञ हैं। इस धर्म में पशु पक्षी आदि की बलि अनिवार्य मानी गयी है और कहा गया है कि वेद विहित हिंसा धर्म का ही हेतु है। इस विधान में बलि किये जानेवाले निरपराध पशु पक्षी आदि के प्रति स्पष्टतया आत्मसाम्य के अभाव की अर्थात् श्रात्म वैषम्य की दृष्टि है। इसके विपरीत उक्त तीनों बातो में श्रमण धर्म का साम्य इस प्रकार है: श्रमण धर्म समाज में किसी भी वर्ण का जन्मसिद्ध श्रेष्ठत्व न मानकर गुण-कर्मकृत ही श्रेष्ठत्व व कनिष्ठत्व मानता है, इसलिए यह समाजरचना तथा धर्माधिकार में जन्मसिद्ध वर्णभेद का आदर न करके गुणकर्म के आधार पर ही सामाजिक व्यवस्था करता है। अत एव उसकी दृष्टि में सद्गुणी क्षुद्र भी दुर्गुणी ब्राह्मण आदि से श्रेष्ठ है, और धार्मिक क्षेत्र में योग्यता के आधार पर हर एक वर्ण का पुरुष या स्त्री समान रूप से उच्च पद का अधिकारी है। श्रमण धर्म का अंतिम साध्य ब्राह्मण धर्म की तरह अभ्युदय न होकर निःश्रेयस है। निःश्रेयस का अर्थ है कि, ऐहिक पारलौकिक नानाविध सब लाभों का त्याग सिद्ध करनेवाली ऐसी स्थिति, जिस में पूर्ण साम्य प्रकट होता है और कोई किसी से कम योग्य या अधिक योग्य रहने नहीं पाता। जीव जगत् के प्रति श्रमण धर्म की दृष्टि पूर्ण आत्मसाम्य की है, जिस में न केवल पशु पक्षी आदि या कीट पतंग आदि जंतु का ही समावेश होता है, किंतु वनस्पति जैसे अतिक्षुद्र जीव वर्ग का भी समावेश होता है। इसमें किसी भी देहधारी का किसी भी निमित्त से किया जानेवाला वध आत्मवध जैसा हि माना गया है और वध मात्र को अधर्म का हेतु माना है।