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श्रीमद् राजचंद्र की आत्मोपनिषद्
विषयों मे ही शास्त्ररसिक जन डूबे रहते हैं और तोतेरट-पोपटपाठ - से आगे नहीं बढ़ते हैं। उन्हें उद्देशित कर उन्होंने सूचित किया है कि शास्त्र के वे वर्णन उसका अंतिम तात्पर्य नहीं है और अंतिम तात्पर्य पाये बिना ऐसे शास्त्रों का पाठ केवल मतार्थिता का पोषण करता है। श्रीमद् राजचंद्र का यह कथन जितना अनुभवमूलक है उतना ही सभी परंपराओं को एक समान लागु होता है।
मतार्थी के स्वरूपकथन के बाद आत्मार्थी का संक्षिप्त फिर भी मार्मिक स्वरूप आलेखित किया गया है । मति सुल्टी - सुलझी हुई - होते होते ही - आत्मार्थ दशा प्रारम्भ होती है और सुचिंतना जन्म लेती है। उसी के ही कारण से निश्चय और व्यवहार का अंतर और उसका संबंध यथार्थ रूप में समझ में आता है। और कौन सा सद्व्यवहार और कौन सा नहीं यह भी समझा जाता है। ऐसी सुचिंतना के परिणामस्वरूप अथवा उसकी पुष्टि हेतु श्री राजचंद्र ने आत्मा से संबंधित छह पदों के विषय में अनुभवसिद्ध वाणी में शास्त्रीय वर्णन किया है जो सिद्धसेन ने 'सन्मतितर्क' में और हरिभद्र ने शास्त्रवार्ता समुच्चय' आदि में भी किया है। - १. आत्मा का अस्तित्व दर्शाते हुए श्री राजचंद्र ने जिस देहात्मवादी की प्रचलित और बालसुलभ दलीलों का निरसन किया है वह एक ओर से चार्वाक मान्यता का नक्शा प्रस्तुत करता है और दूसरी ओर से आत्मवाद की भूमिका प्रस्तुत करता है। वैसे तो अनेक आत्मस्थापक ग्रंथो में चार्वाक मत का निरसन आता है। परंतु श्री राजचंद्र की विशेषता मुझे यह दिखाई देती है कि उनका कथन शास्त्रीय अभ्यास मूलक केवल ऊपरी दलीलों में से जन्म नहीं लेते हुए सीधा अनुभव में से आया हुआ है। इसीलिये ही उनकी कुछ दलीलें दिल की गहराई मे पैठ जायँ ऐसी
- २.आत्मा अर्थात् चैतन्य देह के साथ ही नहीं उत्पन्न होता और देह के विलय के साथ विलय नहीं पाता यह बात समझ में आ सके ऐसी वाणी और युक्तिओं से दर्शाकर आत्मा का नित्यत्व - पुनर्जन्म स्थापित किया है। दृष्टिभेद से आत्मा भिन्न भिन्न अवस्थाएँ धारण करते हुए किस प्रकार स्थिर है और पुनर्जन्म के संस्कार किस प्रकार कार्य करते हैं यह दर्शाते हुए उन्होंने सिद्धसेन के ‘सन्मति तर्क' की दलील भी प्रयुक्त की है कि बाल्य, यौवन आदि भिन्न भिन्न अवस्थाएँ होते हुए भी मनुष्य अपने आप को निरंतर सूत्र रूप में देखता है। केवल क्षणिकत्व नहीं है यह दर्शाने के लिये