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प्रज्ञा संचयन होता है। सातवें से बारहवें गुणस्थानों की भूमिका यह तो उत्कट साधक दशा की ऐसी भूमिका है कि वह सागर में गोता लगाकर मोती लाने जैसी स्थिति है। इस विषय में श्रीमद् राजचंद्र ने स्वयं ही स्पष्ट विवेचन किया है अतः वह मनन करने योग्य है।
जहाँ सद्गुरु का योग न हो वहाँ भी आत्मा का अस्तित्व दर्शानेवाले शास्त्र मुमुक्षु को उपकारक बनते हैं। शास्त्रों के बिना भी सद्गुरु ने दिया हुआ उपदेश तक मुमुक्षु को बलप्रदान करता है। परंतु श्रीमद् सद्गरु के योग पर बड़ा बल देते हैं वह सहैतुक है । मनुष्य में पोषित हुए कुलधर्माभिनिवेश, मन की चालवाली निजमति - कल्पनानुसार जैसे चाहे वैसे बरतने की आदत, चिरकालीन मोह और अविवेकी संस्कार ये सब स्वच्छन्द हैं। स्वच्छन्द को रोके बिना, आत्मज्ञान की दिशा प्रकट नहीं होती और सद्गरु के - अनुभवी दिशा दर्शक के - योग के बिना स्वच्छन्द रोकने का काम अति कठिन है, सीधी ऊंची पर्वत-चढ़ाई पर चढ़ने जैसा है।
सच्चा साधक चाहे जितना विकास होने पर भी सद्गुरु के प्रति अपना सहज विनय गौण कर नहीं सकता और सद्गुरु हो वह ऐसे विनय का दुरुपयोग भी नहीं ही करेगा। जो शिष्य की भक्ति और विनय का दुरुपयोग करता है अथवा अनुचित लाभ उठाता है, वह सद्गुरु ही नहीं है। ऐसे ही असद्गुरु अथवा कुगुरु को लक्ष्य में रखकर श्री. किशोरलालभाई की टीका है।
मुमुक्षु और मतार्थी के बीच का भेद श्री राजचंद्र ने दर्शाया है उसका सार - निष्कर्ष यह है कि सुलझी हुई - सुल्टी - मति वह मुमुक्षु और उल्टी मति वह मतार्थी। ऐसे मतार्थी के अनेक लक्षण उन्होंने स्फुट, कुछ विस्तार से दर्शाये हैं जो बिलकुल सर्वथा अनुभवसिद्ध हैं और किसी भी पंथ में मिल आते हैं। उनकी एक दो विशेषता की ओर इस स्थल पर ध्यान आकृष्ट करना इष्ट है। प्रसिद्ध आचार्य समन्तभद्र ने 'आप्तमीमांसा' की देवागम - नभोयान आदि कारिकाओं में बाह्य विभूतिओं में वीतरागपद देखने की बिलकुल ना कही है। श्रीमद् भी यही वस्तु सूचित करते हैं। योगशास्त्र के विभूतिपाद में, बौद्ध ग्रंथों में और जैन परंपरा में भी विभूति, अभिज्ञा - चमत्कार अथवा सिद्धि और लब्धि मे नहीं फंसने की बात कही है वह सहजरूप से ही श्री राजचंद्र के ध्यान में है। उन्होंने यह देखा था कि जीव की गति-अगति, सुगति-कुगति के प्रकार कर्मभेद के भांगे इत्यादि शास्त्र में वर्णित