________________
जैन तत्त्वज्ञान : जैन दर्शन
___५५
उसकी एक विशेषता यह भी थी कि वह समग्र बाह्य विश्व को आविर्भावयुक्त नहीं मानते हुए उसमें से कुछ कार्यों को उत्पत्तिशील भी मानता था । वह यह कहता कि बाह्य विश्व में कितनी ही वस्तुएँ ऐसी हैं कि जो किसी पुरुष के प्रयत्न के बिना ही अपने परमाणुरूप कारणों में से जन्म लेती हैं। वैसी वस्तुएँ तिल में से तेल की भाँति अपने कारण में से केवल आविर्भाव पाती हैं, आविर्भूत होती हैं, परन्तु बिलकुल नई नहीं उत्पन्न होती; जब कि बाह्य विश्व में बहुत-सी वस्तुएँ ऐसी भी हैं कि जो अपने जड़ कारणों में से तीन उत्पन्न होती हैं, परंतु अपनी उत्पत्ति में किसी पुरुष के प्रयत्न की अपेक्षा रखती हैं। जो वस्तुएँ पुरुष के प्रयत्न की सहाय से जन्म लेती हैं, वे वस्तुएँ अपने जड़ कारणों में तिल में तैल की भाँति छिपी नहीं होती, परंतु वे सर्वथा नई ही उत्पन्न होती हैं। जैसे कोई बढ़ई अलग अलग लकड़ी के टुकड़ों को एकत्र करके उस पर एक घोड़ा बनाये वह घोड़ा लकड़ी के टुकड़ों में छिपा नहीं होता जैसे कि तिल में तैल होता है परंतु घोड़ा बनाने वाले बढ़ई की बुद्धि में कल्पना रूप में होता है और वह लकड़ी के टुकड़े के द्वारा मूर्त रूप धारण करती है। अगर बढ़ई चाहता तो वह उसी लकड़ी के टुकड़े में से घोड़ा नहीं बनाते हुए गाय गाड़ी या वैसी दूसरी वस्तु बना सकता था। तिल में से तैल निकालने की बात इस से सर्वथा भिन्न है। कोई चाहे जितना विचार करे या चाहे फिर भी तिल में से घी या मक्खन तो निकाल नहीं सकता है! इस प्रकार प्रस्तुत चौथा विचार प्रवाह परमाणुवादी फिर भी एक ओर परिणाम और अविर्भाव मानने के विषय में प्रकृतिवादी विचार प्रवाह के साथ मिलता था, और दूसरी ओर कार्य एवं उत्पत्ति के विषय में परमाणुवादी दूसरे विचार प्रवाह को मिलता था।
यह तो बाह्य विश्व के विषय में चौथे विचार प्रवाह की मान्यता हुई, परंतु आत्मतत्त्व के विषय में तो उसकी मान्यता उपर्युक्त तीनों विचार प्रवाहों से भिन्न ही थी। वह मानता था कि देहभेद से आत्मा भिन्न है, परंतु ये सारी ही आत्माएँ देशदृष्टि से व्यापक नहीं हैं एवं केवल कूटस्थ भी नहीं हैं। वह ऐसा मानता था कि जैसे बाह्य विश्व परिवर्तनशील है, वैसे आत्मा भी परिणामी होने से सतत परिवर्तनशील हैं। आत्मतत्त्व संकोच-विस्तारशील भी है और इस कारण से वह देहप्रमाण है।
यह चौथा विचार प्रवाह वही जैन तत्त्वज्ञान का प्राचीन उत्स (मूल) है। भगवान महावीर से पहले बहुत समय आगे से वह विचार प्रवाह चलता आरहा था और वह अपने ढंग से विकसित होता एवं स्थिर होता जाता था। आज इस चौथे