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प्रज्ञा संचयन
शक्ति के हाथ के सिवा ही, चलते रहते हैं, और इसलिये इस जगत की उत्पत्ति या व्यवस्था के लिये ईश्वर जैसी स्वतंत्र अनादिसिद्ध व्यक्ति का स्वीकार करने की वह ना कहता है, निषेध करता है। यद्यपि जैनदर्शन न्याय-वैशेषिक, बौद्ध आदि की भाँति जड़ सत् तत्त्व को अनादिसिद्ध अनंत व्यक्ति रूप स्वीकार करता है और सांख्य की भाँति एक व्यक्तिरूप स्वीकार नहीं करता, फिर भी वह सांख्य के प्रकृतिगामी सहज परिणामवाद को अनंत परमाणु नामक जड़ सत्-तत्त्वो में स्थान देता है।
इस प्रकार जैन मान्यता अनुसार जगत् का परिवर्तन-प्रवाह अपने आप ही चलता है, फिर भी जैन दर्शन इतना तो स्पष्ट कहता है कि विश्व की जो जो घटनाएँ किसी की बुद्धि और प्रयत्न के कारण से दीखतीं हैं, उन घटनाओं के पीछे ईश्वर का नहीं, परंतु उन घटनाओं के परिणाम में भागीदार होनेवाले संसारी जीव का हाथ है, अर्थात् वैसी घटनाएँ जाने-अनजाने किसी न किसी संसारी जीव के बुद्धि और प्रयत्न के कारण होती हैं। इस विषय में प्राचीन सांख्य और बौद्ध दर्शन जैनदर्शन जैसे ही विचार रखते हैं।
वेदांतदर्शन की भांति जैनदर्शन सचेतन तत्त्व को एक या अखंड नहीं मानता, परंतु सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक एवं बौद्ध आदि की भाँति वह सचेतन तत्त्व को अनेक व्यक्तिरूप मानता है। फिर भी उनके साथ भी जैनदर्शन को थोड़ा मतभेद है, और वह यह है कि जैनदर्शन की मान्यता अनुसार सचेतन तत्त्व बौद्ध मान्यतानुसार केवल परिवर्तन-प्रवाह नहीं है एवं सांख्य-न्याय आदि की भाँति केवल कूटस्थ भी नहीं है, किन्तु जैनदर्शन कहता है कि मूल में सचेतन तत्त्व ध्रुव अर्थात् अनादि-अनंत होते हुए भी वह देश-काल का असर धारण किये सिवा रह नहीं सकता है। इसलिये जैन मतानुसार जीव भी जड़ की भाँति परिणामिनित्य है। जैनदर्शन ईश्वर जैसे किसी व्यक्ति को सर्वथा स्वतंत्र रूप में नहीं मानता, फिर भी वह ईश्वर के समग्र गुण जीवमात्र में स्वीकार करता है, इसलिये जैन दर्शन अनुसार प्रत्येक जीव में ईश्वरत्व की शक्ति है, भले ही वह, आवरण से दबी हुई हो, परंतु जीव यदि योग्य दिशा में प्रयत्न करे तो वह स्वयं में निहित ईश्वरीय शक्ति को पूर्णरूप से विकसित कर स्वयं ही ईश्वर बनता है । ('सर्वजीव हैं सिद्ध सम, जो समझे, बन जायँ।' - आत्मसिद्धिशास्त्र श्रीमद्राजचंद्र जी - सं.)। इस प्रकार जैन मान्यतानुसार ईश्वरत्व को अलग स्थान नहीं होते हुए