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प्रज्ञा संचयन
दूसरा विचार प्रवाह ऐसा मानता था कि यह बाह्य विश्व किसी एक कारण से जन्म नहीं लेता। उसके स्वभाव से भिन्न भिन्न ऐसे अनेक कारण हैं और उन कारणों में भी विश्व दूध में मक्खन की भाँति छिपा रहा हुआ नहीं था, परंतु जैसे अलग अलग लकड़ों के टुकड़ों के मिलने से एक नई ही गाड़ी निर्मित होती है, वैसे उन भिन्न भिन्न प्रकार के मूल कारणों के संश्लेषण-विश्लेषण में से यह बाह्य विश्व बिलकुल नया ही उत्पन्न होता है। पहला परिणामवादी और दूसरा कार्यवादी। ये दोनों विचार प्रवाह बाह्य विश्व के आविर्भाव अथवा उत्पत्ति के विषय में मतभेद रखते हुए भी आंतरिक विश्व के स्वरूप के विषय में सामान्य रूप से एकमत थे। दोनों ऐसा मानते (थे) कि अहं नामक आत्मतत्त्व अनादि है। न तो है वह किसी का परिणाम, या न तो है वह किसी कारण में से जन्मा हुआ। जैसे वह आत्मतत्त्व अनादि है, वैसे वह देश और काल उन दोनों दृष्टि से अनंत भी है; और वह आत्मतत्त्व देहभेद से भिन्नभिन्न है, वास्तविक रीति से वह एक नहीं है।
तीसरा विचार प्रवाह ऐसा भी था कि जो, बाह्य विश्व और आंतरिक जीवजगत दोनों को किसी एक अखंड सत् तत्त्व का परिणाम मानता था और मूल में बाह्य अथवा आंतरिक विश्व की प्रकृति अथवा कारण में कोई भी भेद मानने का इन्कार करता था। जैन विचार प्रवाह का स्वरूप
... उपर्युक्त तीन विचार प्रवाहों को हम अनुक्रम से यहाँ प्रकृतिवादी, परमाणुवादी और ब्रह्मवादी नाम से पहचानेंगे। इनमें से प्रथम के दो विचारप्रवाहों से विशेष मिलता हुआ और फिर भी उससे भिन्न ऐसा एक चौथा विचार प्रवाह भी साथ साथ में प्रवर्तित था। वह विचार प्रवाह था तो परमाणुवादी, परंतु वह दूसरे विचार प्रवाह की भाँति बाह्य विश्व के कारणभूत परमाणुओं को मूल में से भिन्न भिन्न प्रकार के मानने का पक्ष नहीं लेता था, परंतु मूल में सारे ही परमाणु एक समान प्रकृति के हैं ऐसा मानता था । और परमाणुपाद का स्वीकार करते हुए भी उसमें से मात्र विश्व उत्पन्न होता है ऐसा भी नहीं मानते हुए वह प्रकृतिवादी की तरह परिणाम और आविर्भाव को मानते होने से, ऐसा कहता था कि परमाणुपुंज में से बाह्य विश्व अपने आप परिणमित होता है । इस प्रकार इस चौथे विचार प्रवाह का झुकाव परमाणुवाद की भूमिका पर प्रकृतिवाद के परिणाम की मान्यता की ओर था।