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प्रज्ञा संचयन
से पूर्णता की दिशा में आगे बढ़ता है, वैसे ही मनुष्यजाति के विषय में भी है। मनुष्यजाति को भी बाल्य आदि क्रमिक अवस्थाएँ अपेक्षा विशेष से होती ही हैं। उसका जीवन व्यक्ति के जीवन से अत्यन्त ही दीर्घ एवं विशाल होने से उसकी बाल्य आदि अवस्थाओं का समय भी उतना ही दीर्घ हो यह स्वाभाविक है। मनुष्यजाति जब निसर्ग की गोद में आयी और उसने प्रथम बाह्य विश्व की ओर आंख खोली तब उसके समक्ष अद्भुत और चमत्कारी वस्तुएँ एवं घटनाएँ उपस्थित हुईं। एक ओर सूर्य, चन्द्र और अनगिनत तारकमंडल और दूसरी ओर समुद्र, पर्वत एवं विशाल नदीप्रवाह तथा मेघगर्जनाओं और विद्युत्चमत्कारों ने उसका ध्यान आकृष्ट किया। मनुष्य का मानस इन सब स्थूल पदार्थों के सूक्ष्म चिंतन में प्रवृत्त हुआ और उसे उस विषय में अनेक प्रश्न उठे। जिस प्रकार मनुष्यमन को बाह्य विश्व के गूढ एवं अतिसूक्ष्म स्वरूप विषयक एवं उसके सामान्य नियमों के विषय में विविध प्रश्न उपस्थित हुए, उस प्रकार उसे आंतरिक विश्व के गूढ एवं अतिसूक्ष्म स्वरूप के विषय में भी विविध प्रश्न उत्पन्न हुए। इन प्रश्नों की उत्पत्ति वही ही तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति का प्रथम सोपान। ये प्रश्न चाहे जितने हों और कालक्रम से उनमें से दूसरे प्रधान और उपप्रश्न भी चाहे जितने जन्मे हों फिर भी कुल मिलाकर इन सारे प्रश्नों को संक्षेप में निम्नानुकार बताया जा सकता है :तात्त्विक प्रश्न
स्पष्ट दीखाई दे रही रीति से सतत परिवर्तन पा रहा यह बाह्य विश्व कब उत्पन्न हआ होगा? किसमें से उत्पन्न हआ होगा? अपने आप ही उत्पन्न हआ होगा या किसीने उत्पन्न किया होगा? और उत्पन्न हआ न हो तो क्या यह विश्व ऐसा ही था
और है? अगर उस के कारण हों तो वे स्वयं बिना परिवर्तन के शाश्वत ही होने चाहिये या परिवर्तनशील होने चाहिये? फिर वे कारण किसी भिन्न भिन्न प्रकार के ही होंगे या सारे बाह्य विश्व का कारण केवल एक रूप ही होंगे? इस विश्व की जो व्यवस्थित और नियमबद्ध संचालना और रचना दीखती है वह बुद्धिपूर्वक होनी चाहिये या यंत्रवत् अनादिसिद्ध होनी चाहिये? अगर विश्वव्यवस्था बुद्धिपूर्वक हो तो वह किसकी बुद्धि के कारण है? क्या वह बुद्धिमान तत्त्व स्वयं तटस्थ रहकर विश्व का नियमन करता है या वह स्वयं ही विश्व रूप में परिणमित है अथवा दिखाई देता है?