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लेखांक ४
जैन तत्त्वज्ञान : जैन दर्शन
तत्त्वज्ञान अर्थात् विश्व के बाह्य और आंतरिक स्वरूप में एवं उसके सामान्य और व्यापक नियमों के सम्बन्ध में तात्त्विक दृष्टि से चिंतन। ऐसा चिंतन किसी एक ही देश, एक ही जाति अथवा एक ही प्रजा में उत्पन्न होता है और क्रमशः विकास प्राप्त करता है ऐसा नहीं होता; परंतु इस प्रकार का चिंतन मनुष्य का विशिष्ट स्वरूप होने से वह शीघ्र या विलम्ब से प्रत्येक देश में बसनेवाली प्रत्येक प्रकार की मानवप्रजा में अल्प अथवा अधिक अंश में उत्पन्न होता है और ऐसा चिंतन भिन्न भिन्न प्रजाओं के परस्पर संसर्ग के कारण और कभी बिलकुल (सर्वथा) स्वतंत्र रूप से भी विशेष विकसित होता है, एवं सामान्य भूमिका में से गुज़र कर वह अनेक रूपों में प्रारम्भ से आजतक भूखंड पर मनुष्य जाति ने जो तात्त्विक चिंतन किये हैं वे सब आज अस्तित्त्व में नहीं हैं, एवं उन सब चिंतनों का क्रमिक इतिहास भी पूर्णरूप से हमारे सामने नहीं है फिर भी अभी उस विषय में जो कुछ सामग्री हमारे सामने है
और उस विषय में थोड़ा सा भी जो कुछ हम जानते हैं उस पर से इतना तो निर्विवादरूप से कहा जा सकता है कि तत्त्वचिंतन की भिन्न भिन्न एवं परस्परविरोधी दिखाई देती चाहे जितनी धाराएँ हों, फिर भी उन सभी चिंतनधाराओं का सामान्य स्वरूप एक है और वह यह कि विश्व के बाह्य और आंतरिक स्वरूप के सामान्य
और व्यापक नियमों का रहस्य खोज निकालना। तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति का स्रोत
जैसे कोई मनुष्यव्यक्ति प्रथम से ही पूर्ण नहीं होता, परंतु वह बाल्य आदि भिन्न भिन्न अवस्थाओं में से गुज़रने के साथ ही अपने अनुभवों को बढ़ाकर अनुक्रम