Book Title: Pragna Sanchayan
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

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Page 87
________________ सप्तभंगी उसमें प्रमाणबाधित है? अथवा उसे नित्य या अनित्यरूप से नहीं कहते हुए अवक्तव्य ही कहना यह योग्य है? इन तीन विकल्पों की परीक्षा करते हुए तीनों सच्चे हों तो उनका विरोध दूर करना ही चाहिये। जब तक विरोध खड़ा रहे तब तक परस्पर विरुद्ध अनेक धर्म एक वस्तु में है ऐसा कहा ही नहीं जा सकता। इसलिये विरोध परिहार की ओर ही सप्तभंगी की दृष्टि प्रथम जाती है। वह निश्चित करती है कि आत्मा नित्य है, परंतु सर्व दृष्टि से नहीं, केवल मूल तत्त्व की दृष्टि से वह नित्य है, क्योंकि कभी भी वह तत्त्व नहीं था और बाद में उत्पन्न हआ ऐसा नहीं है, और कभी वह तत्त्व मूलमें से ही नष्ट होगा ऐसा भी नहीं है । इसलिये तत्त्वरूप से वह अनादिनिधन है और वही उसका नित्यत्व है। ऐसा होने पर भी वह अनित्य भी है, परंतु उसका अनित्यत्व तत्त्वदृष्टि से नहीं होते हुए केवल अवस्था की दष्टि से है। अवस्थाएँ तो प्रति समय निमित्तानुसार बदलती ही रहती हैं। जिसमें कुछ न कुछ रूपांतर नहीं होता है, जिसमें आंतरिक अथवा बाह्य निमित्तानुसार सूक्ष्म या स्थूल अवस्थाभेद सतत चालू न हो ऐसे तत्त्व की कल्पना ही नहीं हो सकती है। इसलिये अवस्थाभेद मानना पड़ता है और वही अनित्यत्व है। इस प्रकार आत्मा तत्त्वरूप से (सामान्यरूप से) नित्य फिर भी, अवस्थारूप से (विशेषरूप से) अनित्य भी है। नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों एक ही स्वरूप में एक ही वस्तु में मानते हुए विरोध आता है जैसे कि तत्त्वरूप से ही आत्मा नित्य है ऐसा माननेवाला उसी रूप से अनित्य भी माने तो । उसी प्रकार आत्मा नित्य अनित्य आदि शब्द द्वारा उस उस रूप में प्रतिपाद्य फिर भी समग्र रूप में किसी भी एक शब्द से कहा नहीं जा सकता; इसलिये वह असमग्ररूप से शब्द का विषय बनता है। फिर भी समग्ररूप से ऐसे किसी शब्द का विषय बन नहीं सकता, अतः अवक्तव्य भी है। इस प्रकार एक नित्यत्व धर्म को अवलंबित (होकर) आत्मा के विषय में नित्य, अनित्य और अवक्तव्य ऐसे तीन पक्षों - भंगों को वाजिब ठहराया है। उसी प्रकार एकत्व, सत्त्व, भिन्नत्व, अभिलाप्यत्व आदि सर्वसाधारण धर्मों को लेकर किसी भी वस्तु के विषय में ऐसे तीन भंग बनते हैं, और उस पर से सात बनते हैं। चेतनत्व घटत्व आदि असाधारण धर्मों को लेकर भी सप्तभंगी का अबंधत्व किया जा सकता है । एक वस्तु में व्यापक या अव्यापक जितजितने धर्म होते हों उन प्रत्येक को लेकर उसकी दूसरी बाजु सोचकर सप्तभंग के अर्थघटन किये जा सकते हैं।

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