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प्रज्ञा संचयन प्राचीन काल में आत्मा, शब्द आदि पदार्थों में नित्यत्व-अनित्यत्व, सत्य - असत्य, एकत्व-बहुत्व, व्यापकत्व-अव्यापकत्व आदि विषयों में परस्पर बिलकुल विरोधी वाद चलते थे। उन वादों का समन्वय करने की वृत्ति में से भंगकल्पना आई। उस भंगकल्पनाने फिर सांप्रदायिकवाद का रूप धारण किया और सप्तभंगी मे परिणमन हुआ।
सात से अधिक भंग संभवित नहीं है, इसी लिये ही सात की संख्या कही है। मूल तीन की विविध संयोजना करें और सात में अंतर्भाव न पाये ऐसा भंग उत्पन्न कर सके तो जैनदर्शन सप्तभंगित्व का आग्रह कर ही नहीं सकता।
इस का सार संक्षेप में इस प्रकार -
१. तत्कालीन चलते विरोधी वादों का समीकरण करना। यह भावना सप्तभंगी की प्रेरक है।
२. वैसा करके वस्तु के स्वरूप की निश्चितता करना और यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना, यह उसका साध्य है।
३. बद्धि में भासित किसी भी धर्म के विषय में मूल में तीन ही विकल्प संभवित हैं और चाहे जितने शब्दिक परिवर्तन से संख्या बढ़ायें तो भी सात ही हो सकते हैं।
४. जितने धर्म उतनी ही सप्तभंगी है। यह वाद अनेकांतदृष्टि का विचारविषयक एक सबूत है। उसके उदाहरण जो शब्द, आत्मा आदि दिये हैं, उसका कारण यह है कि प्राचीन आर्य चिंतक आत्मा का विचार करते थे और अधिक तो आगम-प्रामाण्य की चर्चा में शब्द को लेते थे।
५. वैदिक आदि दर्शनों में, विशेष कर वल्लभदर्शन में, सर्व धर्म समन्वय' है, वह इसका ही एक रूप है। शंकर स्वयं वस्तु का वर्णन करते हैं, फिर भी अनिर्वचनीय कहते हैं।
६. प्रमाण से बाधित न हो ऐसा सब कुछ ही संगृहीत कर लेने का इसके पीछे उद्देश है - फिर भले वह विरुद्ध माना जाता हो ।