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प्रज्ञा संचयन
ओर से अपने प्रति जिस वर्तन - व्यवहार की अपेक्षा रखी जाय वैसा ही वर्तन दूसरों
आचार
के प्रति रखने पर जोर देकर समग्र आचार व्यवहार आयोजित करते हैं। जो आत्मा के वास्तविक अभेद अथवा ब्रह्मैक्य में मानते हैं वे भी दूसरे जीवों में अपना ही असली रूप मानकर अभेदमूलक आचार व्यवहार आयोजित कर कहते हैं कि, अन्य जीव के प्रति विचार में या वर्तन में भेद रखना यह आत्मद्रोह है, और ऐसा कहकर समान आचार - व्यवहार की ही हिमायत करते हैं। तीसरी दृष्टिवाले भी उपर्युक्त रीति से ही तात्त्विक आचार व्यवहार की हिमायत करते हैं । इस प्रकार देखें तो आत्मवादी कोई भी दर्शन हो तो भी उसकी पारमार्थिक अथवा मूलगामी व्यवहार की हिमायत एक ही प्रकार की है। इसलिये ही जैन, बौद्ध, वेदान्त या वैष्णव आदि सारे ही दर्शनों में सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह आदि तात्त्विक आचार में कोई भी भेद दिखाई नहीं देता। बेशक, बाह्य और सामाजिक आचार व्यवहार, जो मुख्यरूप से रुढ़ियाँ और देशकाल का अनुसरण कर सृजित ( निर्मित) या परिवर्तित होता है उसमें, परंपराभेद तो है ही, और वह मानव स्वभाव के अनुसार अनिवार्य है। परंतु जो आत्मस्पर्शी मूलगामी वर्तन के सिद्धान्त हैं, उनमें किसीका मतभेद नहीं है। प्रत्येक दर्शन अपनी मान्यता के अनुसार के आत्मज्ञान पर ज़ोर देकर तद् विषयक अज्ञान अथवा अविद्या निवारण करने को कहते हैं और आत्मज्ञान भली भाँति प्रकट हुए बिना या पाचन हुए बिना विषमतामूलक वर्तन बंध होनेवाला नहीं है और ऐसा वर्तन जब तक बंध नहीं होता तब तक पुनर्जन्म का चक्र भी बंध होनेवाला नहीं है ऐसा कहते हैं । इस लिए ही हम किसी भी परंपरा के सच्चे संत और साधक की चिन्तना अथवा वाणी को जाँचेंगे किंवा उनका जीवन-व्यवहार देखेंगे तो बाह्य रीति नीति में भेद होते हुए भी उनकी प्रेरक आंतर भावना में कोई भी भेदभाव नहीं देख पायेंगे ।
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अब हम संक्षेप में 'आत्मसिद्धि' के विषयों का परिचय करें:
प्रथम दोहे में श्री राजचंद्र ने सूचित किया है कि आत्मतत्त्व का अज्ञान ही संसारिक दुःख का कारण है और उसका ज्ञान यह दुःखनिवृत्ति का उपाय है। उनका यह विधान जैन परंपरा का तो अनुसरण करता ही है, परंतु वह अन्य सारी ही आत्मवादी परंपराओं को भी मान्य है । उपनिषदों की भाँति सांख्य योग, न्याय वैशेषिक और बौद्ध दृष्टि भी देह, इन्द्रिय, प्राण आदि से आत्मतत्त्व को अपनी अपनी रीति से भिन्न स्थापित करके उसके ज्ञान को, कहें कि 'भेदज्ञान' को या
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