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प्रज्ञा संचयन ग्रंथराशि के उपहार से विशेष मूल्यवान है। अपन अपने पक्ष की और मंतव्य की सिद्धि के हेतु अनेक सिद्धिग्रंथ शताधिक वर्षों से रचित होते आये हैं। सर्वार्थसिद्धि' केवल जैन आचार्य ने ही नहीं, परंतु जैनेतर आचार्यों ने भी अपने अपने संप्रदाय पर लिखी है। 'बाद्यसिद्धि'. 'अद्वैतसिद्धि'आदि वेदांत विषयक ग्रंथ सविदित हैं। 'नैष्कर्म्य सिद्धि', 'ईश्वरसिद्धि' ये भी प्रसिद्ध हैं । 'सर्वज्ञसिद्धि' जैन, बौद्ध आदि अनेक परंपराओं में लिखी गई है । अकलंक के 'सिद्धि विनिश्चय' के उपरांत आचार्य शिवस्वामी रचित 'सिद्धि विनिश्चय' के अस्तित्त्व का प्रमाण अभी प्राप्त हुआ है। ऐसे विनिश्चय ग्रंथों में अपने अपने अभिप्रेत हों ऐसे अनेक विषयों की सिद्धि कही गई है। परंतु सारी सिद्धियों के साथ जब श्री राजचन्द्र की आत्मसिद्धि' की तुलना करता हूँ तब सिद्धि शब्दरूप समानता होते हुए भी उसके प्रेरक दृष्टिबिन्दु में महती दूरी दिखाई देती है । उन उन सभी दर्शनों की ऊपर सूचित एवं अन्य सिद्धियाँ किसी विषय की केवल तर्क (दलील) द्वारा उपपत्ति करती हैं और विरोधी मंतव्य का तर्क अथवा युक्ति से निराकरण करती हैं। वस्तुतः ऐसी दार्शनिक सिद्धियाँ प्रधानतः तर्क और युक्ति के बल पर रची गईं हैं, परन्तु उनके पीछे आत्मसाधना अथवा आध्यात्मिक परिणति का समर्थ बल शायद ही दिखाई देता है! जब कि प्रस्तुत आत्मसिद्धि की गरिमा ही भिन्न है। उसमें श्री राजचंद्र ने जो निरूपण किया है वह उनके जीवन की गहराई में से अनुभव पूर्वक निष्पन्न होने के कारण वह केवल तार्किक उपपत्ति नहीं है, परंतु आत्मानुभव की (बनी) हई सिद्धि - प्रतीति है, ऐसा मुझे स्पष्ट दिखता है । इसी लिये तो उनके निरूपण में एक भी वचन कटु, आवेशपूर्ण, पक्षपाती अथवा विवेकविहीन नहीं है। जीवसिद्धि तो श्रीमद् पूर्व कितने ही आचार्यों ने की हुई और लिखी हुई है, परंतु उनमें प्रस्तुत 'आत्मसिद्धि' में है ऐसा बल शायद ही प्रतीत होता है । निस्संदेह उनमें युक्ति एवं दलीलें ढेरों हैं।
श्री राजचंद्र ने 'आत्मसिद्धि' में मुख्यतः आत्मा से सम्बन्धित छह मुद्दों की चर्चा की है (१) आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व; (२) उसका नित्यत्व - पुनर्जन्म; (३) कर्मकर्तृत्व, और (४) कर्मफल भोक्तृत्व; (५) मोक्ष और (६) उसका उपाय। इन छह मुद्दों की चर्चा करते हुए उनके प्रतिपक्षी छह मुद्दों पर भी चर्चा करनी ही पड़ी है। इस प्रकार उसमें बारह मुद्दे चर्चित हुए हैं। उस चर्चा की भूमिका उन्होंने इतनी । . अधिक सबल ढंग से और संगत रीति से बांधी है और उसका उपसंहार इतने