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श्रीमद् राजचंद्र की आत्मोपनिषद् दूसरे क खंडन में उतर गये और दृष्टि की विशालता एवं आत्मशुद्धि साधने का प्रधान उद्देश ही भूल गये। इस कारण से आध्यात्मिक साधना पर रचित परंपराएं महद् अंशो मे एकदेशीय एवं दुराग्रही भी बनी हुई इतिहास में हम देखते हैं ।विशेष तो क्या, परंतु एक ही परंपरा में भी ऐसे भेद हो गये और वे परस्पर इस प्रकार बरतने
और देखने लगे कि उन में भी अभिनिवेश और दुराग्रह ने ही प्रमुख स्थान धारण किया।
किसी भी समाज में पला हुआ व्यक्ति जब सच्चे अर्थ में आत्म जिज्ञासु बनता है, तब उसके लिए भी उस पथ और भेद के संकुचित बंधन और कुसंस्कार बड़े विघ्नरूप बन जाते हैं । परंतु सच्चा अध्यात्मजिज्ञासु उन सब विघ्नों से पर जाता है
और अपना मार्ग अपने ही पुरुषार्थ से निष्कंटक बनाता है। ऐसे अध्यात्म वीर विरले जनमते हैं। श्रीमद् उन विरलों मे से एक आधुनिक महान विरल पुरुष है। उन्होंने जैन परंपरा के संस्कार विशेष प्रमाण में आत्मसात् किये। उन्होंने मूलभूत लेख गुजराती में ही और वह भी महदंश में जैन परिभाषा पर अवलंबित आश्रित होकर ही लिखे हैं। इसलिये उनकी पहचान गुजरात के बाहर अथवा जैनेतर क्षेत्र में अधिक विशेष रूप से नहीं है। परंतु इससे उनका आध्यात्मिक प्रतिभारूप और सत्यदृष्टि साधारण है ऐसा यदि कोई अनुमान करे, तो वह महती भ्रान्ति ही सिद्ध होगी। कोई समझदार व्यक्ति एक बार उनके लेखन को पढ़े तो उनके मन पर उनकी विवेक प्रज्ञा, मध्यस्थता और सहज सरलता का अमिट प्रभाव पड़े बिना कभी भी नहीं रह सकता। ___ मैनें प्रथम भी अनेक बार आत्मसिद्धि का पठन और चिंतन-मनन किया था परंतु अभी अभी यह लिखता हूँ तब विशेष स्थिरता और विशेष तटस्थता से उसे पढ़ा, उसका अर्थचिंतन किया, उसके वक्तव्य का यथाशक्ति मनन और पृथक्करण किया । तब मुझे प्रतीत हुआ कि यह ‘आत्मसिद्धि' एक ही ग्रंथ ऐसा है कि जिसमें श्रीमद्रराजचंद्र के चिंतन और साधना का गहन से गहन सर्व रहस्य समा जाता है।
जिस आयु में और जितने अल्प समय में श्री राजचंद्र ने आत्मसिद्धि' में स्वयं आत्मसात् किया हुआ ज्ञान संजोया है उसे सोचता हूँ तब मेरा मस्तक भक्तिभाव से झुक पड़ता है । उतना ही नहीं, परन्तु मुझे प्रतीत होता है कि उन्होंने आध्यात्मिक मुमुक्षु को दिया हुआ उपहार यह तो शत शत विद्वानों ने प्रदान किये हुए साहित्यिक