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प्रज्ञा संचयन उन पर स्पष्ट एवं प्रवाहबद्ध लेखन की क्षमता और वह भी घर के आंगन में खेलने की किशोरावस्था से तथा बाद में अपने व्यवसाय आदि की विविध प्रवृत्तियों के बीच - को देखकर श्रीमद जैसे व्यक्ति को उत्पन्न करनेवाली जैन संस्कृति के प्रति ही नहीं, गुजरात की संस्कृति के प्रति भी हमारा मस्तक स्वयं झुक जाता है। जैन समाज के लिये तो वह व्यक्ति आदरणीय स्थान चिरकालीन बनाए रखेगा इसमें शंका हो ही नहीं सकती। तटस्थभाव से एक सच्चे चिंतक के रूप में श्रीमद के साहित्य को पढ़े बिना उनके विषय में अभिप्राय स्थिर करना या व्यक्त करना विचारक की दृष्टि में उपहासास्पद बनने जैसा तथा अपना स्थान खोने जैसा
___ 'श्रीमद् राजचंद्र' ग्रंथ के अंतिम संस्करण को देख लेने के बाद उस संस्करण की खटकनेवाली कुछ क्षतियों के प्रति उनके अनुगामियों का ध्यान आकर्षित करना योग्य समझता हूँ। ये क्षतियाँ रहेंगी तब तक विद्वान लोग श्रीमद् राजचंद्र' ग्रंथ का उचित मूल्यांकन नहीं कर सकेंगे। क्षतियाँ परिशिष्ट तथा शुद्धि विषयक हैं:• सर्वप्रथम तो - विषयानुक्रम हो यह आवश्यक है । • कुछ परिशिष्टों में -
१. इस ग्रंथ में उल्लेखित ग्रंथ एवं ग्रंथकारों विषयक
२. इस ग्रंथ में दिये गये उदाहरण विषयक - उसके मूल ग्रंथ तथा स्थानों के उल्लेख के साथ
३. इस ग्रंथ में प्रयुक्त सभी पारिभाषिक शब्दों के विषय में जिनकी परिभाषा दी गई हो और जिनकी परिभाषा न दी गई हो
४. इस ग्रंथ में चर्चित विषय मूल रूप में जिन ग्रंथों से लिए गये हों उन ग्रंथों में उन विषयों का स्थान और जहाँ आवश्यक हो वहाँ उन पाठों को दर्शानेवाला
- इस प्रकार अनेक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ऐसे कुछ अन्य परिशिष्ट भी दिये जायँ यह आवश्यक है। अपने लेखों में उनके द्वारा प्रयुक्त संस्कृत और प्राकृत शब्दों को यथावत् रखते हुए जहाँ विकृति हो वहाँ कोष्ठक में प्रत्येक शब्द का शुद्ध रूप देने से ग्रंथ का महत्त्व कोई कम नहीं होगा।