Book Title: Pragna Sanchayan
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

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Page 68
________________ ३० प्रज्ञा संचयन का यह ज्ञान न होने पर भी औषधोपचार की झंझट में क्यों पड़ें ? - विशेषरूप में यह बात धार्मिक गृहस्थों एवं त्यागीजनों को स्पर्श करती है। यह दूसरा प्रश्न है। ३.औषधोपचार करें तो भी पुनः कर्मबंध तो अवश्य होनेवाला है, क्यों कि औषधि बनाने की प्रक्रिया में तथा उसका उपयोग करते समय मन में रही पापवृत्ति निष्फल तो नहीं ही रहती। तो फिर यह तो एक रोग का निवारण कर के नये रोग के बीज को बोने जैसा ही हुआ। इसका समाधान कहाँ ढूंढा जाय? यह तीसरा प्रश्न है। इन तीनों प्रश्नों की चर्चा श्रीमद्जी ने कर्मशास्त्र की दृष्टि से की है। औषधि तथा वेदनीय-कर्मनिवृत्ति के बीच का संबंध बताते हुए तथा कर्मबंध और विपाक की विचारणा करते हुए उन्होंने जैन कर्मशास्त्र के विषय मे मौलिक चिंतन व्यक्त किया है। जैन तत्त्वज्ञान में रुचि रखनेवाले सभी लोगों के लिए पूरा ‘व्याख्यानसार' (७५३) पठनीय है। उसको पढ़ने से ऐसा लगता है कि अगर उन्होंने पूर्ण एवं परिपक्व रूप में सम्यक्त्व का अनुभव न किया होता तो उसके विषय में इतने स्पष्ट रूप से और बार बार कह न सकते। जब वे इस विषय में कहते हैं तब केवल स्थूल स्वरूप की बात वे नहीं कहते। उनकी इन बातों मे अनेक प्रसिद्ध उदाहरणों का वर्णन भी आकर्षक रूप में आता है। पहले कभी केवलज्ञान की नई परिभाषा प्रस्तुत करने की बात सोची होगी उस परिभाषा को उन्होंने यहाँ सूचित किया है ऐसा लगता है, जो कि जैन परंपरा में एक नूतन प्रस्थान तथा नूतन विचारणा को उपस्थित करती है। इसमें विरति-अविरति तथा पापक्रिया की निवृत्ति-अनिवृत्ति के विषय में मार्मिक विचार व्यक्त हुए हैं। - श्रीमद्जी पर क्रियालोप का जो आक्षेप किया जाता था, उसके विषय में उन्होंने स्वयं ही इसमें स्पष्टता की है, जो उनकी सत्यप्रियता तथा निखालसता का परिचय करवाती है। 'उपदेशछाया' (६४३) शीर्षक लेख संग्रह में श्रीमद् की आत्मा में सदा रममाण विविध विषयों के चिंतनों की छाया है, जो जैन जिज्ञासु जनों की रुचि के लिए विशेष पुष्टिकर है।

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