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प्रज्ञा संचयन
विशिष्ट कृतियों के दूसरे विभाग में भिन्न भिन्न समय में गाँधीजी को लिखे गये तीन पत्र हैं। प्रथम पत्र (४४७) में जिस प्रकार प्रश्न विस्तृत है उसी प्रकार उत्तर भी विस्तृत - दीर्घ है। इसकी दूसरी विशेषता यह है कि ये प्रश्न तात्त्विक तथा व्यावहारिक दोनों प्रकार के हैं तथा एक बेरिस्टर की बुद्धि के लिए उचित ऐसे व्यवस्थित हैं और जो उत्तर दिये गये हैं वे प्रज्ञा एवं अनुभव ज्ञान में से प्रस्फुटित हैं। उसके प्रत्येक पद में - प्रत्येक शब्द में समत्व का दर्शन होता है। सर्प को मारने न मारने का न्याय प्रज्ञापाटव तथा वस्तुस्थिति को सूचित करता है । यद्यपि आज के परिप्रेक्ष्य में यह उत्तर अपर्याप्त ही है। सामूहिक दृष्टि से भी ऐसी बातों में विचार करना अनिवार्य हो जाता है। गाँधीजी ने यह विचार बाद में किया। श्रीमद्जी क्या करते यह कहा नहीं जा सकता किंतु जैनों के लिए एवं सभी के लिए इस विषय में सोचना आवश्यक है। बुद्ध के विषय में श्रीमद्जी ने जो अभिप्राय दिया है वह अगर उन्होंने उनके मूल ग्रंथों का पूर्ण अध्ययन किया होता तो कुछ भिन्न प्रकार का होता ।
गाँधीजी को लिखे गये दूसरे पत्र में (४८२) विवेकज्ञान, उसकी संभावना तथा उसके साधनों का स्पष्ट चित्र है।
तीसरे पत्र में (६४१) आर्य विचार-आचार, आर्य-अनार्य क्षेत्र, भक्ष्याभक्ष्य विवेक, वर्णाश्रमधर्म की अगत्यत्या, जाति-पाँति आदि के भेद और खान-पान के परस्पर व्यवहार आदि के विषय में स्पष्टता की है। आज भी गाँधीजी के विकसित तथा व्यापक जीवनक्रम में मानों श्रीमद् की उन स्पष्टताओं के संस्कार निहित हों ऐसा प्रतीत होता है।
ये तीनों पत्र सभी के लिए पढ़ने योग्य हैं । इन पत्रों की विशेषता का कारण यह है कि वे अन्य लोगों को लिखें उससे गाँधीजी को कुछ अलग ही लिखना होता है-अधिकारी व्यक्ति के प्रश्न के अनुसार ही उत्तर हो सकता था।
गाँधीजी के अतिरिक्त अन्य किसीको लिखे गये पत्रों में हम व्यवहार विषयक चर्चा क्वचित् ही देखते हैं। दूसरे पत्रों में लोक, पर्याय, केवलज्ञान, सम्यक्त्व इत्यादि की चर्चा होती है। जब कि गाँधीजी धार्मिक दृष्टि से व्यावहारिक प्रश्न पूछते थे और आज हम देखते हैं कितने व्यावहारिक प्रश्नों का समाधान गाँधीजी ने धर्मदृष्टि से ढूँढा है! सामान्य जैन वर्ग एवं अन्य वर्ग अनधिकार प्रश्न ही करते हैं, ऐसा सर्वकालीन अनुभव श्रीमद् को पूछे जाने वाले प्रश्नों में भी सत्य सिद्ध हुआ है।