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श्रीमद् राजचंद्र - एक समालोचना गुजराती जनता में ही नहीं, बल्कि थोड़ी बहुत गुजराती भाषा जाननेवालों में भी प्रचलित हुआ है और अधिक प्रचलित होता जा रहा है। इस पद्य का विषय जैन प्रक्रियानुसार गुणश्रेणी है। उसमें प्रक्रिया का ज्ञान एवं भाव तादात्म्य स्पष्ट है। यह पद्य ऐसे आत्मिक उल्लास में से स्फुरित हो कर लिखा गया है कि पाठक को भी वह शांति प्रदान करता है। जैन प्रक्रिया होने के कारण उसमें भाव की सर्वगम्यता आये, यह तो संभव ही नहीं है। नरसिंह महेता आदि के भजन लोकप्रिय हैं क्यों कि उसकी वेदांत-परिभाषा भी उतनी अगम्य नहीं होती है, जितनी इस पद्य में है। इसका विवेचन अगर साधारण एवं सर्वदर्शन परिभाषा में तुलनात्मक दृष्टि से किया जाय तो वह अधिक प्रसरित हो सकता है । नरसिंह महेता के भजन 'वैष्णवजन तो तेने कहीए' भजन में वर्णित वैष्णवजन (बौद्ध परिभाषा में बोधिसत्त्व) साधना के क्रम में लोकसेवा के कार्य की योग्यता रखता है, जब कि 'अपूर्व अवसर' भजन में निहित भावनावाला आर्हत् साधक नितांत आध्यात्मिक एकांत की गहन गुफा में सेव्यसेवक के भाव को भूल कर समाहित हो जाने की तत्परतामय दिखाई देता है।
'निरखीने नवयौवना' इत्यादि ब्रह्मचर्य विषयक दोहे (मोक्षमाला-३४) किसी गहन उद्गम में से उद्भुत हुए हैं। स्वयं गाँधीजी भी कभी कभी इसका पाठ करते थे ऐसा सुना है। सत्रह वर्ष की आयु में विरचित 'बहु पुण्य केरा पुंजथी' इत्यादि हरिगीत निबद्ध काव्य (मोक्षमाला-६७) शब्द एवं अर्थ दोनों रूप में अति गंभीर है जैसे परिपक्व वय में लिखा गया हो ..! ब्रह्मचर्य विषयक दोहों के विषय में भी यही कहा जा सकता है। - हे प्रभु! हे प्रभु! शुं कहँ?' काव्य (२२४) केवल आत्म निरीक्षण से परिपूर्ण है, सराबोर है। 'जडभावे जड परिणमे' काव्य (२२६) पूर्णतः जैन
आत्मप्रक्रिया का बोधक है। 'जिनवर कहे छे ज्ञान तेने' इस ध्रुवपंक्ति वाला काव्य (२२७) जैन परिभाषा में ज्ञान की तात्विकता का निरूपण करता है ।
इन सभी अलग अलग काव्यों को विशिष्ट कृति में समाविष्ट करने का कारण यह है कि इन सब में एक या दूसरे रूप में जैन तत्त्वज्ञान तथा जैन भावना अत्यंत स्पष्टरूप में व्यक्त हुई है और ये सब सुपाठ्य हैं, सरल हैं। जिसने एक बार जैन परिभाषा के पर्दे को पार कर लिया, उसे तो चाहे वह कितनी ही बार पढ़े तो भी उसे उसमें से नावीन्य का ही अनुभव हो ऐसा है।