________________
३४
प्रज्ञा संचयन
श्रीमद् की भाषा गुजराती है, परंतु उनकी रचनाओं में प्रयुक्त भाषा उनकी विशिष्ट भाषा है। इस आधुनिक युग में जैन तत्त्वचिंतन सर्व प्रथम उन्होंने ही किया और लिखा, अतः उनकी भाषा ने विशिष्ट स्वावलंबी रूप धारण किया। उनमें चर्चित विषय अनेक ग्रंथों में से तथा कुछ स्वतंत्र भाव से गहन चिंतन में से आये हुए हैं। इस कारण से अनुवादक के चयन में अगर इन तीन बातों को ध्यान में नहीं रखेंगे तो ये अनुवाद केवल शाब्दिक अनुवाद ही होंगे:
१. मातृभाषा के समान ही श्रीमद् की भाषा का तलस्पर्शी परिचय अनुवादकर्ता ने प्राप्त किया हो।
२. उसमें चर्चित विषयों का गहन - परिपक्व एवं स्पष्ट परिशीलन अनुवादकर्ता द्वारा किया गया हो।
३. जिस भाषा में अनुवाद करना हो उस भाषा में लिखने में अनुवादकर्ता सिद्धहस्त हो ।
ये सारी सुविधाएँ प्राप्त कराने के लिए ऐसे अनुवादकर्ता प्राप्त करने हेतु जो उचित खर्च करना आवश्यक हो, वह करने में वैश्यवृत्ति जरा भी न करके समयानुकूल उदारवृत्ति का अवलंबन लेना चाहिए ... ! ( " श्री राजचन्द्रनां विचाररत्नो" गुजरात विद्यापीठ में से उद्धृत) ।
******