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श्रीमद् राजचंद्र - एक समालोचना
उपसंहार
बंगाली, मराठी, हिंदी और गुजराती आदि प्रांतीय भाषाओं में, जिनमें गृहस्थ अथवा त्यागी जैन विद्वानों और विचारकों द्वारा लेखन प्रवृत्ति होती है और अधिक संभवित है, उनमें से प्रसिद्ध जैन आचार्य आत्मारामजी की हिंदी कृतियों के अतिरिक्त एक भी भाषा में बीसवीं शताब्दि में लिखा गया एक भी ऐसा ग्रंथ मैंने नहीं देखा जिसे लेखनशैली - गांभीर्य, मध्यस्थता तथा मौलिकता की दृष्टि से श्रीमद्जी के लेखों के समकक्ष रखा जा सके या उनकी अंशतः तुलना की जा सके। इस कारण से समग्र आधुनिक जैन साहित्य की दृष्टि से विशेष रूप में जैन तत्त्वज्ञान तथा चरित्र विषयक गुजराती साहित्य की दृष्टि से श्रीमद् के लेखों का मूल्य बहुत अधिक है। वर्तमान समय में अनेक वर्षों से जैन समाज में आज की नई पीढ़ी को नूतन शिक्षा के साथ धार्मिक एवं तत्त्वज्ञान विषयक जैन शिक्षा दे सकें ऐसे पुस्तकों की माँग हर तरफ से अनवरत हो रही है ऐसा देखा गया है। अनेक संस्थाओं ने अपनी अपनी शक्ति-संभावनाओं के अनुसार ऐसी माँग की पूर्ति हेतु कुछ प्रयत्न किये हैं और छोटी-बड़ी पुस्तकें प्रसिद्ध की हैं। परंतु मैं जब निष्पक्षभाव से इन सब के विषय में सोचता हूँ तब मुझे स्पष्ट प्रतीति होती है कि ये सभी प्रयत्न तथा यह संपूर्ण साहित्य श्रीमद् के साहित्य के सम्मुख बालिश तथा कृत्रिम जैसा है। उनके लेखों में से ही पूर्ण रूप से कुछ भाग पसंद कर के, अध्ययन करनेवालों की वयं तथा योग्यता के अनुसार पाठ्यक्रम तैयार किया जाय - जिसमें कोई खर्च या किसी प्रकार के परिश्रम आदि का भी बोझ नहीं है - तो धार्मिक साहित्य से संबंधित जैन समाज की माँग की उनके लेखों के द्वारा अन्य किसी पुस्तक की अपेक्षा अधिक संदर रूप से पर्ति की जा सकती है। उनके साहित्य में किशोर से लेकर प्रौढ़ वय के मनुष्यों के लिए तथा प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थी से लेकर गहन चिंतकों के लिए - हर कक्षा के जिज्ञासुओं के लिए अध्ययन की सामग्री मौजूद है। हाँ, इस सामग्री के सदुपयोग हेतु असंकुचित एवं गुणग्राहक मानसचक्षु अति आवश्यक है। .
श्रीमद् के संपूर्ण जीवनकाल से अधिक समय अध्ययन में बीतानेवाला, श्रीमद के भ्रमण तथा परिचयक्षेत्र से अधिक विस्तृत क्षेत्र में भ्रमण करनेवाला तथा विविध क्षेत्रों के अनेक विद्यागरुओं के चरणों में विनयपूर्वक बैठनेवाला मेरे जैसा अल्पज्ञानी भो चाहे तो उनके लेखों में त्रुटियाँ बता सकता है; परंतु जब उनकी अपने ही बल पर विद्या प्राप्त करने की, शास्त्राध्ययन की तथा तत्त्वचिंतन की प्रकृति और