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श्रीमद् राजचंद्र - एक समालोचना
मनुष्य चाहे अंतर्मुख हो या बहिर्मुख व्यक्तिगत जीवन एवं सामुदायिक जीवन की स्वस्थता हेतु उसे सामान्य नीति की आवश्यकता होती ही है। ऐसी व्यावहारिक नीति की शिक्षा के हेतु से पुष्पमाला' की रचना करने के बाद श्रीमद्जी को अंतर्मुख अधिकारी जनों के लिये लिखने की, कुछ विशिष्ट लिखने की, प्रेरणा प्राप्त हुई हो ऐसा लगता है। उसमें से उन्होंने आध्यात्मिक जिज्ञासा को संतुष्ट करने एवं उसकी पुष्टि हेतु दूसरी कृति की रचना की। उसके उद्देश एवं विषय के अनुरूप उन्होंने उसका नाम रखा 'मोक्षमाला'। माला अर्थात् १०८ मनके अर्थात् १०८ पाठ यह समझ ही लेना चाहिए । उसका दूसरा भाग 'प्रज्ञावबोध मोक्षमाला' लिखने की उनकी भावना थी जो पूरी न हुई। फिर भी सद्भाग्य से जिन विषयों पर वे लिखना चाहते थे उनकी सूची बनाई थी वह लभ्य है (८६५)। कोई विशिष्ट प्रज्ञावान व्यक्ति को उन विषयों पर लिखना चाहिए, यह कहना शायद आवश्यक नहीं है।
'मोक्षमाला' में चर्चित धर्म से संबंधित विषय विशेषतः जैन धर्म को ही लक्ष में रख कर लिये गये हैं। उनमें उनके प्रथम परिचित स्थानकवासी शास्त्र तथा स्थानकवासी परंपरा का प्रभाव स्पष्टरूप से दृष्टिगोचर होता है फिर भी समग्र रूप से देखें तो सर्वसाधारण जैन संप्रदाय को अनुकूल लगे उस ढंग से मध्यस्थभाव से वे लिखे गये हैं। मोक्षमाला की विशेषताएँ तो उसके अध्ययन के द्वारा ही समझी जाय यही अधिक योग्य होगा, फिर भी यहाँ उसकी एक विशेषता अवश्य उल्लेखनीय है। सोलह साल और तीन मास की लघु वय में, जो न तो किसी विद्यालय - महाविद्यालय में पढ़ा है या जिसने न किसी संस्कृत या धार्मिक पाठशाला में कुछ सीखा है ऐसे उस किशोर रायचंद ने केवल तीन दिन में इतनी सरलता से यह रचना तैयार कर दी, फिर भी किसी प्रौढ़ अध्ययनशील व्यक्ति को भी उसमें सुधारने जैसा शायद ही कुछ दिखाई देगा।
अब हमारी सुविधा हेतु २९ वे वर्ष में लिखी गई आत्मसिद्धि' को (६६०) हम प्रथम लेंगे । उसमें १४२ गाथाएँ हैं। उसका शास्त्र' नाम सार्थक है। उसमें जैन आचार-विचार प्रक्रिया उसके मूलरूप में पूर्णरूप से आ जाती है । उसमें जो विचार हैं वे पक्क हैं। अवलोकन तथा चिंतन विशाल एवं गंभीर हैं। जो तत्त्व को समझना चाहते हो और संस्कृत-प्राकृत ग्रंथों के जंगल में उलझे बिना ही उसे स्पर्श करना चाहते हों, उनके लिए यह शास्त्र नित्य पठनीय है। सन्मति, षड्दर्शनसमुच्चय, योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रंथों का यह निष्कर्ष है