________________
प्राक्कथन
अपना देहत्याग कर दिया। ९७ की उनकी आयु के साथ उन्मुक्त प्रज्ञा के, ऋतंभरा प्रज्ञा' के एक युग का अंत हो गया। - विधाता ने, विश्व ने ऐसा विरल परंतु 'विद्या-परवश' फिर भी अपने प्रचंड परम पुरुषार्थ से 'स्व-वश ही 'स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल, स्व-भाव' में विचरने वाला विद्या पिपासु विद्या-महासाधक कभी देखा होगा अपने
अनादिकालीन सुदीर्घ इतिहास में? . A अभूतपूर्व, अविच्छिन्न, अप्रतिबद्ध, अखंड, प्रतिकूल-प्रवाह विरुद्ध तैरनेवाला अनन्य पुरुषार्थी सुखलाल जैसा माई का लाल कभी पैदा हुआ है विराग वीतराग और विद्या-परा अपरा विद्या के विशाल विश्व में?
फिर भी ऐसे अद्वितीय विद्यापुरुष का कोई स्मृति स्थान उनके अक्षर-देह साहित्य-ग्रंथों को छोड़कर-इस विश्व में, भारत में, अंतिम उपासना-क्षेत्र अहमदाबाद में ? उनका स्वयं का नहीं, उनकी विश्व-विद्या वितरण का? __उनके विदेह गमन के बाद जब जब अहमदाबाद जाता हूँ तब तब खड़ा रह जाता हूँ नगरमध्य के उनके विद्योपवन ‘सरित् कुंज' के स्थान पर ... एक निःश्वास सह परंतु पाता हूँ कि जहाँ उनके नाम का, उनकी परिकल्पना का विश्वविद्यालय निर्मित होना चाहिए था, वहाँ न तो वह पुरातन ‘सरित् कुंज' है, न वह 'चिकुनिकुंज'। बस शेष हैं भीतर अंतस में उनका स्मृति-पुञ्ज और बाहर वहाँ खड़ा है केवल 'अर्थ-कामी जगत की बदली हुई कॉन्क्रेटी इमारत का जंगल' !! और पुरातन सरितकुंज नामका केवल एक स्वप्न !!! ___एक गहरा अवसाद लिए लौट आता हूँ हंपी रत्नकूट श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम की सुरम्य पर्वतिका पर, कि जहाँ ऐसे विश्वविद्यालय का निर्माण आर्षदृष्टाप्रज्ञापुरुष पंडितजी ने इंगित-चिह्नित किया था और जिसे प्राज्ञ परमगुरु सहजानंदघनजीने अग्रज सह प्रमाणित-प्रास्तावित किया था...पर वहाँ भी? मेरे इस भीतरी अवसाद को लेकर अपनी 'दक्षिणापथ की साधनायात्रा' के 'पुस्तकार्पण' में यह लिखना पड़ा - 'हम्पी के आश्रम-तीर्थ पर वस्तुपालतेजपाल-वत् अपूर्व जिनालय-जैन विश्वविद्यालय दोनों निर्माण करने की भव्य भावनाएँ स्वप्नदृष्टा बनकर सद्गुरुदेव सहजानंदघनजी के चरण में बैठकर बनाईं, प्रयास शुरु किये . . . परंतु वे सब साकार बने उसके पूर्व ही वे दोनों (अग्रज एवं