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श्रीमद राजचंद्र - एक समालोचना
तब भी उनके जीवन में आध्यात्मिक वृत्ति का स्पष्ट दर्शन हमें होता है । काम और अर्थ के संस्कारों ने उन्हें अपनी ओर बलात् ही खींचा, अन्यथा उनकी सहज वृत्ति तो धर्म के प्रति ही थी और इस तथ्य का ज्ञान हमें उनके लेखों द्वारा स्पष्ट रूप में होता है। उनके अंतस में यह धर्मबीज किस प्रकार विकसित होता है यह हम अब देखेंगे।
बाईस वर्ष की आयु में श्रीमद्जी ने जो संक्षिप्त सरल - निश्छल आत्मस्मृति का वर्णन किया है उसे देखने से तथा पुष्पमाला' एवं उसके बाद लिखी गई 'काळ न मूके कोई ने' (काल किसीको छोड़ता नहीं है) और 'धर्मविषे' - (धर्म के विषय में) इन दो कविताओं में प्रयुक्त कुछ सांप्रदायिक शब्दों से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनके आध्यात्मिक संस्कार परंपरागत वैष्णव भावना के आश्रय से पुष्ट हुआ था
और बाल्यावस्था में ही इन संस्कारों का द्विगुण द्रुत गति से विकास हुआ उसके पीछे स्थानकवासी जैन परंपरा कारणभूत थी । उस परंपरा ने उनके मानस मे दया और अहिंसा की वृत्ति को दृढ़ करने में विशेष योगदान दिया है ऐसा लगता है । यद्यपि उन्हें बाल्यावस्था तथा कुमारावस्था में केवल स्थानकवासी जैन परंपरा का ही परिचय था, किन्तु जैसे जैसे उम्र के साथ साथ उनके भ्रमण का और परिचय का क्षेत्र विकसित होता गया, उन्हें प्रथम मूर्तिपूजक श्वेतांबर परंपरा का और बाद में दिगंबर परंपरा इन दो जैन परंपरा का भी परिचय प्राप्त हुआ और यह परिचय पुष्ट भी होता गया । वैष्णव संस्कार में उद्भूत तथा विकसित और आगे जाकर स्थानकवासी परंपरा के प्रभाव से अधिक दृढ़ताप्राप्त उनकी आध्यात्मिकता का दर्शन हम जैन परिभाषा में करते हैं । तत्व रूप में आध्यात्मिकता एक ही होती है, चाहे वह किसी भी जाति या पंथ में जन्मे हुए व्यक्ति के जीवन में प्रवर्तमान हो । उसे व्यक्त करने वाली वाणी केवल अलग अलग होती है । आध्यात्मिक मनुष्य चाहे मुसलमान हो, हिंदु हो या ईसाई हो, अगर वह सच्चा आध्यात्मिक हो तो उसकी भाषा और शैली भिन्न भिन्न होते हुए भी आध्यात्मिकता भिन्न नहीं होती । श्रीमद् की आध्यात्मिकता को मुख्य पुष्टि जैन परंपरा से प्राप्त हुई है अतः वह अनेक रूपों में जैन परिभाषा के द्वारा ही उनके पत्रों में व्यक्त हुई है। यह बात उनके व्यावहारिक धर्म को समझने के लिए ध्यान में रखनी होगी।
यहाँ एक प्रश्न उठता है कि अहमदाबाद और बम्बई जैसे प्रवृत्तिमय नगरों में निवास करने पर भी एवं उन दिनों वहाँ चारों ओर चल रही सुधारवादी प्रवृत्तियों से परिचित होते हुए भी, एक या दूसरे प्रकार से देशचर्चा के निकट होते हुए भी उनके