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श्रीमद् राजचंद्र - एक समालोचना
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की प्राप्ति होती गई। इस प्रकार श्वेतांबर साहित्य का परिचय बहिरंग एवं अंतरंग दोनों प्रकार से बढ़ता ही जा रहा था, कि ऐसे में मुंबई जैसे स्थानों से उन्हें दिगंबर शाखा के शास्त्र उपलब्ध हुए। वे जिस समय जो पढ़ते उस समय उसके विषय में अपनी दैनंदिनी मे लिख लेते और ऐसा अगर न हो सका तो कम से कम किसी जिज्ञासु या स्नेही व्यक्ति को लिखे जानेवाले पत्र में उसका निर्देश करते । उनकी दैनंन्दनी सब की सब प्राप्त हैं या ऐसे सभी पत्र प्राप्त हुए हैं और प्राप्त दैनंन्दनी भी समग्र ही है ऐसा नहीं कहा जा सकता, फिर भी जो कुछ साधन उपलब्ध हैं उनका आधार लेकर इतना तो निश्चित् रूप से कहा जा सकता है कि उन्होंने तीनों जैन परंपराओं
तात्त्विक प्रधान ग्रंथों का अध्ययन - संस्पर्श अत्यंत वेधक सूक्ष्म दृष्टि से किया है। उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग, दशवैकालिक, प्रश्नव्याकरण इत्यादि ग्रंथों को तो वे शब्द, भाव और तात्पर्य में आत्मसात् कर गये थे ऐसा प्रतीत होता है ।
कुछ तर्कप्रधान ग्रंथों का भी अध्ययन उन्होंने किया है। वैराग्यप्रधान तथा कर्मविषयक साहित्य तो उनकी नसनस में व्याप्त था ऐसा लगता है।
गुजराती, हिन्दी, संस्कृत और प्राकृत इन चार भाषाओं में लिखित शास्त्र श्रीमद् ने पढ़े हैं ऐसा लगता है। आश्चर्य तो इस बात का है कि गुजराती के अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं का अन्य विद्वानों की तरह उन्होंने व्यवस्थित अभ्यास किया नहीं है, फिर उन भाषाओं के विशारद पंडित शास्त्रों के भावों का जितनी यथार्थता के साथ स्पर्श करें उतनी ही यथार्थता के साथ और कई बार तो उनसे भी अधिक विशदता के साथ उन्होंने शास्त्रों के भावों को गद्य में अथवा पद्य में व्यक्त भी किया है, कई बार उन भावों का मार्मिक विवेचन भी किया है। यह सब उनकी अर्थस्पर्शी प्रज्ञा के सूचक - परिचायक हैं।
उस समय जैन परंपरा में ग्रंथों के मुद्रण का चलन नहींवत् था । दिगंबर शास्त्रों ने तो मुद्रणालय का द्वार भी देखा नहीं था। ऐसे युग में ध्यान, चिंतन, व्यापार आदि अन्य सभी प्रवृत्तियों के बीच इन तीनों संप्रदायों के शास्त्रों का भाषा आदि की अपर्याप्त सुविधाओं के बावजूद उनका यथार्थ अध्ययन करना तथा उन पर आकर्षक रूप में लिखना यह श्रीमद्जी की असाधारण विशेषता है। उनके कोई गुरु नथे अगर होते तो उनके कृतज्ञ हाथ उनका उल्लेख करना न भूलते - लेकिन
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