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___ श्रीमद् राजचंद्र - एक समालोचना की लेखी, मैं कहता आँखन की देखी': असामान्य आत्मदृष्टाओं की ऐसी अनुभूति-महत्ता या कागज़-शास्त्रों की? ____ श्रीमद्जी को विश्व के समस्त ग्रंथों-दर्शनों का ज्ञान जब हस्तामलकवत् हो चुका था, 'बीज केवलज्ञान' और प्रायः अधिकांश सर्वज्ञता की ओर वे अपनी पूर्ण आत्मज्ञता के कारण पहुंच गए थे - ऐसी अंतर्दशा की अवस्था में उन्हें किसी अन्य दर्शनों के पूर्वाध्ययन, विशेष अध्ययन की आवश्यकता शेष रह गई थी क्या? सर्वज्ञ तीर्थंकरों को ऐसी आवश्यकता होती है क्या? तीर्थंकर भगवान महावीर कल्पसूत्र के गणधरवाद' द्वारा अपनी ज्ञानानुभूति की स्पष्ट स्थापना करते हुए भी वेदों का खंडन थोड़े ही करते हैं? फिर स्वयं पू.पंडितजी के ही इसके बाद के अपने 'आत्मसिद्धि - श्रीमद् की आत्मोपनिषद्' लेख में आत्मसिद्धि' की सर्वकालजयी रचना को अन्य सारे ही दर्शनों के ऐसे ग्रंथों से श्रेष्ठतम सिद्ध नहीं कर रहे? वैसे प. पंडितजी का श्रीमद्जी के प्रति सर्वत्र अहोभाव ही अहोभाव दिखता है।) शास्त्रज्ञान तथा साहित्यावलोकन
श्रीमद्जी का स्वभाव ही चिन्तनशील एवं मननशील था। उनका वह चिंतन भी आत्मलक्षी ही था । अतः कहानी, उपन्यास, नाटक, काव्य, प्रवासवर्णन जैसे बाह्यलक्षी साहित्य के प्रति स्वाभाविक रूप से ही उनको रुचि रही नहीं है ऐसा लगता है। ऐसा साहित्य पढ़ने के प्रति उन्होंने ध्यान दिया हो या उसके लिए समय व्यतीत किया हो ऐसा उनके लेखों को देखने से लगता नहीं है । फिर भी कभी ऐसा कुछ साहित्य उनके हाथ लग भी गया हो तो उसका उपयोग भी उन्होंने अपनी तत्त्वचिंतक दृष्टि से ही किया होगा । उनमें असीम जिज्ञासा तथा नई नई बातें जानकर उनके विषय में चिंतन करने की सहज वृत्ति भी खूब थी। उनकी यह वृत्ति साहित्य की अन्य विधाओं की ओर न झुकी; वह केवल शास्त्रों के प्रति ही झुकी रही ऐसा प्रतीत होता है।
विदुरनीति, वैराग्यशतक, भागवत, प्रवीणसागर. पंचीकरण, दासबोध, शिक्षापत्री, प्रबोधशतक, मोहमुद्गर, मणिरत्नमाला, विचारसागर, योगवासिष्ठ, बुद्धचरित आदि जिनका उल्लेख उन्होंने अपने लेखों मे किया है तथा जिन ग्रंथों के नामों का उल्लेख उन्होंने नहीं किया है फिर भी उनके लेखों मे निहित भाव से स्पष्ट