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श्रीमद् राजचंद्र - एक समालोचना
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पर उसका मूल्यांकन संभव ही नहीं है। विशिष्ट गुजराती साक्षर भी अगर उनके पदों का रसास्वाद करना चाहें, तो जिस प्रकार अन्य काव्यों के रसास्वाद हेतु कुछ विशेष संस्कारों की तैयारी की आवश्यकता है, उसी प्रकार जैन परिभाषा एवं जैन तत्त्वज्ञान
स्पष्ट संस्कार प्राप्त करना आवश्यक है । संस्कृत भाषा के विशिष्ट विद्वान भी Main मर्मस्थानका स्पर्श किये बिना श्रीहर्ष की पद्यरचनाओं के चमत्कारों का 'आस्वाद नहीं कर सकते । सांख्य प्रक्रिया के परिचय के बिना कालिदास की कुछ पद्यरचनाओं की अपूर्वता का अनुभव करना असंभव है । वही बात श्रीमद्जी की पद्यरचनाओं के विषय में भी कहनी पड़ेगी ।
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जिस प्रकार जैन समाज के अधिकांश लोग सांप्रदायिक ज्ञान तथा परंपरागत संस्कारों के कारण आनंदघनजी आदि की पद्य रचनाओं के हार्द का जल्दी स्पर्श कर लेते हैं, उसी प्रकार श्रीमद् की पद्य रचनाओं के हार्द का, विषयवस्तु का भी स्पर्श तुरंत कर लेते हैं । काव्य के रसास्वाद हेतु आवश्यक अन्य साहित्य से संबंधित संस्कारों की जैन जनता में कुछ अंशों में कमी होने के कारण काव्य के बाह्य स्वरूप का वास्तविक मूल्यांकन करने में असमर्थ हैं ऐसा देखा गया है। इसी कारण से या
जो गुण नहीं हैं उनका आरोपण अपनी इष्ट कविताओं मे भक्तिवश कर देते हैं या जो गुण हैं उनकी भी परख नहीं कर सकते हैं । श्रीमद् की पद्य रचनाओं के विषय में भी जैन जनता में कुछ ऐसा ही देखा गया है ।
प्रज्ञा
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श्रीमद् में प्रज्ञा गुण था इस बात का प्रतिपादन करने से पहले मुझे यह स्पष्ट करना चाहिए कि प्रज्ञा गुण याने कौनसी शक्तियों के विषय में मैं कहना चाहता हूँ । स्मृति, बुद्धि, मर्मज्ञता, कल्पनासामर्थ्य, तर्कपटुता, सत् असत् विवेक - विचारणा और तुलना सामर्थ्य - -प्रज्ञा शब्द से मुख्य रूप से ये शक्तियाँ विवक्षित हैं । इनमें से अगर प्रत्येक शक्ति का विस्तृत एवं अति स्पष्ट रूप में परिचय कराना चाहूँ तो उनके इन शक्तियों के परिचायक लेखों के अक्षरशः उद्धरण विस्तृत रूप में समजूती के साथ यहाँ प्रस्तुत करने होंगे और अगर ऐसा करूँ तो एक पुस्तक ही हो जायगा । इससे विपरीत, अगर श्रीमद् के लेखों के अंश दर्शाये बिना ये शक्तियाँ श्रीमद् में थीं ऐसा कहूं तो केवल श्रद्धा के बल पर मेरा कथन श्रोताओं के पास मनवाने जैसा