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श्रीमद् राजचंद्र - एक समालोचना तेईस वर्ष की आयु में, व्यापार में मग्न, जिन्होंने संस्कृत भाषा या तर्कशास्त्र का कोई विशेष अध्ययन भी नहीं किया था ऐसे श्री राजचन्दभाई जैन शास्त्र के कैसे कैसे गहन मर्म का उद्घाटन करते थे उसका उदाहरण देखने की इच्छावाले जैनों को श्रीमद्जी ने श्रीमद् राजचंद्र' अंक ११८ और १२५ में पच्चक्खाण (इस ग्रंथ का पृष्ठ ६० - दर्शन और चिंतन) दुष्पच्चक्खाण आदि शब्दों के जो अर्थ समझाये हैं, रुचक प्रदेश की निरावरण स्थिति की जो स्पष्टता की है, तथा निगोदगामी चतुर्दश पूर्वी की चर्चा का जो स्पष्टीकरण किया है, उसे एकाग्रतापूर्वक पढ़ लेना चाहिए।
२९ वें वर्ष में भारतवर्षीय संस्कृति को परिचित ऐसा एक जटिल प्रश्न प्रश्नकर्ता की तर्क जाल के कारण अधिक जटिल बन कर उनके संमुख उपस्थित होता है । प्रश्न का सार यह है कि जीवन आश्रम क्रमानुसार व्यतीत किया जाना चाहिए या किसी भी वय में त्यागी बन सकते हैं ? इस प्रश्न के पीछे मोहक तर्कजाल यह है कि मनुष्य देह तो मोक्षमार्ग का साधन होने के कारण उत्तम है ऐसा जैन धर्म स्वीकार करता है तो फिर ऐसे उत्तम मनुष्य देह का सर्जन रुक जाय ऐसे त्याग मार्ग का, विशेष रूप में संतानोत्पत्ति के पूर्व ही त्यागमार्ग का स्वीकार करने का, उपदेश जैन धर्म देता है तो यह वदतोव्याघात नहीं है ? श्रीमद नै जैन शैली के मर्म को पूर्ण रूप में स्पर्श करते हुए इस प्रश्न का उत्तर दिया है; - वस्तुतः जैन, बौद्ध और सन्यासमार्गी वेदांत - तीनों को यह शैली समान रूप से मान्य है। श्रीमद् का यह उत्तर बुद्धिमान समझदार व्यक्ति को उनके स्वयं के शब्दों में पढ़ना चाहिए (इस ग्रन्थ का पृष्ठ १२६)।
२७ वें वर्ष में दक्षिण आफ्रिका से गाँधीजी ने पत्र लिख कर २७ प्रश्न ही पूछे थे। उन प्रश्नों मे से एक प्रश्न गाँधीजी के शब्दों में इस प्रकार है 'मुझे सर्प डसने के लिए आये तो उसको डसने देना चाहिए या उसे मार देना चाहिए ? यहाँ हम यह मान लें कि अन्य किसी प्रकार से उसे दूर करने की शक्ति मुझमें नहीं है ऐसे संयोगों में" (४४१) । इस प्रश्न का उत्तर श्रीमद् ने मोहनलालभाई (उन दिनों गाँधीजी इसी नाम से जाने जाते थे) को इस प्रकार दिया था - “सर्प आपको डसने आये तो डसने दें ऐसा कहना भी शोचनीय है, फिर भी 'देह अनित्य है' ऐसी अगर आप को प्रतीति हो गई है तो फिर इस असारभूत देह की रक्षा हेतु, जिसके मन में देह के लिए प्रीति है ऐसे सर्पको मारना आपके लिए उचित कैसे माना जा सकता है ? जिसने आत्महित की कामना रखी है उसके लिए तो देह का मोह छोड़कर देह का बलिदान देना ही