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श्रीमद् राजचंद्र - एक समालोचना
उसका स्थान ‘आध्यात्मिक विकास क्रम में कहीं मूर्तिपूजा का आलंबन भी उपयोगी हैं ऐसी अनेकांत दृष्टि ने लिया ।
'षड्दर्शन जिन अंग भणीजे' - आनंदघनजी की इस प्रसिद्ध एवं समन्वयकारी पंक्ति की भावना जैन परंपरा में तर्क युग से विशेष प्रतिष्ठित हुई है । उस भावना के विश्लेषण तथा परीक्षण हेतु केवल जैन शास्त्रों का ही नहीं, बल्कि उन सभी दर्शनों के मूल ग्रंथों का भी योग्य रूप में तथा मध्यस्थ दृष्टि से किया गया अभ्यास अपेक्षित है । श्रीमद् में इस भावना की विरासत थी, जो उन्होंने स्पष्ट रूप से व्यक्त की है। इसके साथ साथ - केवल जैन धर्म के तीन संप्रदायों के विषय में एक अन्य भावना भी दृष्टिगोचर होती है, और वह यह है कि श्वेतांबर परंपरा में शेष दोनों परंपराएं पूर्ण रूप से समाविष्ट हो जाती हैं, जब कि स्थानकवासी या दिगंबर दोनों में से एक भी परंपरा में श्वेतांबर परंपरा पूर्णरूपसे समाविष्ट नहीं होती है । यह विचार - यह भावना सभी परंपराओं के निष्पक्ष शास्त्रज्ञान - शास्त्राभ्यास के परिणामस्वरूप श्रीमद्जी के अंतर में स्पष्ट हुई है ऐसा उनके लेखों पर से स्पष्ट होता है क्यों कि अपने स्नेही जनों को दिगंबर शास्त्रों का अध्ययन करने की सलाह देते हुए उन्होंने कहा है कि दिगंबर परंपरा में नग्नत्वका एकांतिक सिद्धांत है उसकी ओर ध्यान नहीं देना चाहिए । उसी प्रकार वे स्थानकवासी परंपरा की कभी कभी आगमों का मनमाना अर्थ निकालने की प्रणाली का भी विरोध प्रदर्शित करते हैं । लेकिन श्वेतांबर शास्त्रीय परंपरा के आचार या विचार के प्रति एक भी स्थान में उन्होंने विरोध जताया हो या जैन दृष्टि से किसी न्यूनता के प्रति अंगुली निर्देश किया हो ऐसा आज तक उनके लेखों को पढ़ने पर मेरे ध्यान में नहीं आया है । मेरा अपना अभ्यास उसी राय पर स्थिर हआ है कि श्वेतांबर शास्त्रों की आचार विचार परंपरा इतनी अधिक व्यापक तथा अधिकार भेद से अनेकांगी है कि उसमें अन्य दोनों परंपराएं पूर्णरूप से उनके स्थान में नियोजित, समायोजित हो जाती हैं।