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प्रज्ञा संचयन जगह पर जैनेतर दर्शनों को वे हिंसा और राग-द्वेष के पोषक कहते हैं । यदि उन्हें अन्य दर्शनों के मूल साहित्य का गंभीरता पूर्वक अध्ययन-मनन करने का शांत अवसर मिला होता तो वे पूर्व मीमांसा के अतिरिक्त के जैनेतर दर्शनों के विषय में ऐसा कोई भी विधान करने से अवश्य हिचकिचाते । उनकी निष्पक्ष तथा तीव्र प्रज्ञा सांख्य-योगदर्शन में, शांकर वेदान्त में, बौद्ध विचारधारा में जैन परंपरा के समान ही रागद्वेष विरोधी तथा हिंसाविरोधी भाव का स्पष्ट दर्शन कर सकी होती । अधिक तो क्या, परंतु उनकी सरल प्रकृति तथा विशद बुद्धि न्याय-वैशेषिक सूत्र के भाष्यों में भी वीतरागभाव की- निवर्तक धर्म की ही पुष्टि का क्रम शब्दशः देख सकी होती।
और अगर ऐसा हुआ होता तो उनकी मध्यस्थता ने, अन्य दर्शनों के विषय में जैन परंपरा के प्रचलित विधानों के संबंध में हो रही ऐसी भूल को रोका होता।
एक ओर जैन तत्त्वज्ञान के कर्म, गुणस्थान तथा नव तत्त्व आदि विषयों का मौलिक अभ्यास करने का अवसर, उसका ही चिंतन, प्रतिपादन करने का अवसर उन्हें प्राप्त हुआ तथा दूसरी ओर उन जैनेतर दर्शनों के मूल ग्रंथ सांगोपांग देखने का अथवा आवश्यक स्वतंत्रता के साथ - मुक्त रूप से उनके विषय में चिंतन-मनन करने का अवसर उन्हें प्राप्त नहीं हुआ। अन्यथा उनकी गुणग्राही दृष्टि तथा समन्वय क्षमता ने उन सभी दर्शनों के तुलनात्मक चिंतन में से एक नये ही प्रस्थान का आरंभ उनके हाथों करवाया होता और अगर ऐसा न हुआ होता तो भी वेदांत के मायावाद या सांख्य योग के असंग तथा प्रकृतिवाद में जो कमी उन्हें दिखाई दी है वह उस रूप में तो अवश्य न दिखाई देती और उनके द्वारा दर्शाई भी न जाती।
(सम्पादक की समीक्षात्मक टिप्पणी: महाप्राज्ञ पूज्य पंडितजी की गहन तलस्पर्शी, मौलिक, न्यायपूर्ण प्रज्ञा के प्रति अत्यंत आदर होते हुए भी यहाँ एक विनयपूर्ण, विनम्र स्पष्टता और किंचित् मतवैभिन्न्यपूर्ण असहमति कि -
श्रीमद् राजचंद्रजी के 'वचनामृत' अनुसार और उनकी अप्रतिम, स्पष्ट, निष्पक्ष, स्याद्वादी, सर्वग्राही प्रतिपादन शैली एवं उनकी आत्मसाक्षात्कार की सतत, अस्खलित अखंड प्रतीति-स्थिति धारा अनुसार उनका उपयोग' सर्व दर्शनों के सर्व शास्त्रों-ग्रंथों पर निमिषमात्र में घूम फिर जाता था। उनकी स्फटिकवत् आत्मानुभूति के सामने शास्त्रों की क्या मति? कबीर के शब्दों में, 'तू कहता कागज़