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प्रज्ञा संचयन रूप से सूचित हो रहे जैनेतर शास्त्रीय ग्रंथों का उन्होने एकाग्रता पूर्वक तथा तीक्ष्ण दृष्टि से अध्ययन अवश्य किया है, परंतु अधिकतर तो उन्होंने जैन शास्त्रों का ही अध्ययन किया है। उन ग्रंथों में चर्चित तात्त्विक तथा आचार से संबंधित सूक्ष्म विषयों पर उन्होंने अनेक बार गंभीर विचारणा की है और उनके बारे में कई बार लिखा है। उतना ही नहीं, बार बार इसी विषय पर उपदेश भी दिया है । इस दृष्टि से उनके साहित्य को पढ़ने से ऐसा विधान फलित होता है कि यद्यपि कई लोगों मे होती हैं ऐसी संकुचित खंडनमंडनवृत्ति, कदाग्रह या विजय लालसा उनके मन में नहीं थे, फिर भी उनके द्वारा पढ़ा गया समग्र जैनेतर श्रुत, जैन श्रुत तथा जैन भावना के परिपोषण में ही उनको परिणत हुआ था।
भारतीय दर्शनों मे वेदांत (उत्तरमीमांसा) और वह भी शांकरमतानुसारी तथा सांख्यदर्शन इन दर्शनों के मूल तत्त्व का परिचय उन्हें कुछ अधिक था ऐसा लगता है। इसके अतिरिक्त अन्य वैदिक दर्शन या बौद्ध दर्शन के विषय में उन्हें जो कुछ जानकारी प्राप्त हुई, यह उन दर्शनों के मूल ग्रन्थ से नहीं, बल्कि आचार्य हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय, धर्मसंग्रहणी आदि तथा आचार्य सिद्धसेन के मूल सम्मति तर्क जैसे जैन ग्रंथों के द्वारा ही प्राप्त हुई हो ऐसा लगता है।
श्रीमद्जी के जैन शास्त्रज्ञान का आरंभ भी स्थानकवासी परंपरा में से ही होता है। उस परंपरा का साहित्य शेष दो परंपराओं की तुलना में - और विशेषरूप से मूर्तिपूजक श्वेतांबर परंपरा की तुलना में अति अल्प और मर्यादित है। 'थोकड़ा' नामक तात्त्विक विषयों के गुजराती भाषा में बद्ध प्रकरण - कुछ मूल प्राकृत आगम तथा उसके 'टबा' - यही इस परंपरा का मुख्य साहित्य है। बहुत ही कम समय में श्रीमद्ने इन शास्त्रों में से सब नहीं तो - उनमें से मुख्य मुख्य शास्त्रों का अध्ययन कर के उसका हार्द प्राप्त कर लिया, परंतु इतने से उनकी चक्रवर्ती बनने जितनी महत्त्वाकांक्षा का कुछ शमन हो या आंतरिक क्षुधा का परितोष हो ऐसा नहीं था। वे जैसे जैसे जन्म भूमि से निकल कर बाहर जाने लगे और गगनचुम्बी जैन मंदिरों के दर्शन के साथ साथ विशाल ग्रंथभंडारों के विषय में उन्हें जानकारी प्राप्त होती गई, वैसे वैसे उनकी वृत्ति शास्त्रशोधन की ओर मुड़ने लगी । जब वे अहमदाबाद पहुँचे तब उन्हें अनेक नये नये शास्त्र देखने-समझने का अवसर प्राप्त हुआ। फिर तो, ऐसा लगता है कि उनकी विवेचक शक्ति तथा गंभीर धार्मिक प्रकृति के कारण चारों ओर से आकर्षण में वृद्धि होती गई और अनेक दिशाओं में से उन्हें संस्कृत - प्राकृत ग्रंथों