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प्रज्ञा संचयन
समान जागरुक व्यक्ति के मन में सुधारणाओं के तथा देश की प्रवृत्तियों के विषय में कुछ विचार उठे होंगे या नहीं ? और अगर कुछ विचार उठे हों तो उन्होंने उसके विषय में किस प्रकार का निर्णय स्थिर किया होगा? अगर उन्होंने कुछ सोचा था या कोई निर्णय स्थिर किया था तो उनके लेखों में उन विषयों के बारे में कोई स्पष्ट निर्देश या उल्लेख क्यों नहीं दिखता है ? टंकारा में जिनका जन्म हुआ था उन ब्राह्मण 'मूळशंकर के मन में धर्मभावना के साथ साथ समाज के नवनिर्माण की तथा राष्ट्रकल्याण की भावना प्रस्फुटित होती है और उसी टंकारा के निकटस्थ ववाणिया में जन्में हुए तीक्ष्णप्रज्ञ वैश्य राजचंद्र के अंतर को मानों ये भावना स्पर्श ही नहीं करती है और केवल अंतर्मखी आध्यात्मिकता ही उनके जीवन में व्याप्त रहती है, उसका कारण क्या हो सकता है ? सामाजिक या राष्ट्रीय अथवा अन्य किसी बाह्य वृत्ति के साथ सच्ची आध्यात्मिकता को किसी प्रकार का विरोध होता ही नहीं यह बात गांधीजी ने अपने जीवन के द्वारा सिद्ध कर दिखाई तो उन्हींके श्रद्धेय एवं धर्मस्नेही प्रतिभावान श्रीमद् राजचंद्र के मन में यह बात क्यों न उठी? यह एक गंभीर प्रश्न है । इस प्रश्न का उत्तर कुछ अंशों में तो उन्हीं के 'मेरा पोत (हाड) गरीब था।' इन शब्दों में परिलक्षित होती प्रकृति में से तथा कुछ अंशों में उनके अध्ययन-चिंतन के ग्रंथों की सूचि तथा उनके अतिमर्यादित परिचय के क्षेत्र तथा भ्रमण क्षेत्र को देखने से भी मिल जाता है।
· श्रीमद्जी के स्वभाव में आत्मलक्षी निवृत्ति का तत्त्व मुख्य रूप से दिखाई देता है। यही कारण है कि उन्होंने अन्य प्रश्नों को स्पर्श ही नहीं किया है। उन्होंने जिस साहित्य और जिन शास्त्रों का अध्ययन किया है और जिस दृष्टि से उनका चिंतन मनन किया है उसकी ओर ध्यान देने से हम समझ सकते हैं कि उनके मानस में अन्य प्रवृत्तियों को स्थान मिले यह संभव ही नहीं है । आरंभ से अंत तक उनका भ्रमण क्षेत्र एवं परिचय क्षेत्र उनके व्यापारियों से ही संबंधित तथा सीमित रहा है - व्यापारियों में भी मुख्यरूप से जैन व्यापारी ही हुआ करते थे । जो जैन समाज के साधु तथा गृहस्थ व्यापारियों से परिचित होंगे उन्हे यह बताना आवश्यक ही नहीं है कि मूलगामी जैन परंपरा में से प्रवृत्ति का - कर्मयोग का बल प्राप्त करना या सविशेष अर्जित करना असंभव-सा ही है। इसी कारण से श्रीमद् के निवृत्तिगामी स्वभाव को व्यापक प्रवृत्ति की ओर गतिशील कर सके ऐसा कोई प्रबल प्रवाह उनकी बाह्य परिस्थिति में से प्रस्फुटित हो सके ऐसी संभावना ही नहीं थी।