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प्रज्ञा संचयन
आपके चरणों में प्रत्यक्ष सान्निध्य के काल में (१९५६ के विद्याकाल से लेकर १९७० तक के विद्यापीठ के अध्यापन-कार्यकाल तक) आपने मेरे-हमारे वैचारिक, विद्याकीय, शारीरिक, व्यावसायिक (नौकरी आदि के) ही नहीं, वैयक्तिक, व्यावहारिक-पारिवारिक समग्र गठन हेतु और प्रश्नों के हेतु सतत जो महत्वपूर्ण योगदान दिया है और अन-गढ़े पत्थर से प्रारूपमें से अब जिस बाह्यांतर अवस्था से हम गति कर रहे हैं, वह सब बारबार मेरी स्मृति पर उभरकर आता है
और आपकी लेशमात्र भी सेवा में नहीं आ सकने के अवसाद से बेचैन कर देता है। बेंगलोर से इतने दूर और हमारी व्यवहार-व्यवसाय-विद्या की प्रवृत्ति देखते हुए
आपकी बात ठीक ही है कि हमसे वहाँ आया नहीं जा सकता, परंतु हृदयभाव और प्रार्थना रहते हैं कि आप की सेवा के निमित्त कोई अवसर प्राप्त हो जाए।" ... _ "इसके पूर्व अनेकविध रिकार्ड-कॅसेट कृतियाँ संशोधन, उच्चार शुद्धिपूर्वक, आवाज़ को प्रमुखरूप एवं संगीतवाद्यों को गौणस्थान देकर, नई तैयार की। इनमें बृहत्शांति-ग्रहशांति, प्रभात मंगल (श्रीमद् वचनाधारित प्रातःकालीन पारंपरिक स्मृतिपद), श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र, राजुल-चन्दनबाला, इत्यादि निर्मित की गईं। ये सब बहती रहती हैं। इनमें सब से बड़ा गठन-प्रदान-योगदान आप का है, यह कभी भी भुलाया नहीं जाता। सतत स्मृति रहती है, फिर भले ही पत्र लिख न पाता होऊँ। (पत्र लेखन हेतु शांत-निवृत्ति होनी चाहिए, जो शायद मेरी इस बीमारी और आराम की अवस्था ने प्रदान की)।"...
“विदेश जाने से पूर्व आपकी सेवा का एकाध माह भी लाभ मिल जाए ऐसी भावना रहती है जो परमकृपालु पूर्ण करें वैसी प्रार्थना मात्र करता हूँ।"
"मेरे समाचारों के साथ अंतस्-भाव व्यक्त करते हुए मेरे इस पत्र में आज बहुत कुछ लिखा गया। आप भी सुनकर श्रम एवं संवेदन अनुभव करेंगे, जो नहीं चाहूँगा कि आप अधिक अनुभव करें। अतः अब रुकूँगा। सुमित्रा, बालिकाएँ सभी प्रणाम लिखवाती हैं। आपका स्वास्थ्य समाधिपूर्ण बना रहे वैसी प्रार्थना के साथ - प्रताप के अनेकशः प्रणाम।" (३.११.१९७७ - बेंगलोर)
पूज्य पंडितजी के पत्र-प्रत्युत्तर में मेरा यह पत्र भी, पंडितजी के पत्र की भाँति अंतिम ही रहा, जिसका प्रत्युत्तर उन्होंने मौन से ही दिया और फिर तो थोड़े ही समय में वे 'महामौन' में संचार कर गए - २ मार्च १९७८ के दिन उन्होंने अहमदाबाद में