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प्रज्ञा संचयन
परिवार, समाज तथा उस समय के मेरे कुलधर्मगुरुओं के संकीर्ण मानस के कारण ही ऐसे योग्य पुरुष से मिलने की कल्पना भी उस समय मेरे मन में जाग्रत न हुई या साहस ही न हुआ। जिन लोगों के बीच मेरा अधिकांश समय व्यतीत होता था उन स्थानकवासी साधुओं, आर्याओं और कभी कभी उनके भक्तों के मुख से उन दिनों श्रीमद्जी के विषय में तुच्छ अभिप्राय ही मुझे सुनने को मिलता था । इस कारण से मेरे मन में अनायास ही यह धारणा दृढ़ हो गई थी कि राजचंद्र नामक कोई गृहस्थ है जो बुद्धिमान तो है, परन्तु स्वयं को भगवान महावीर के समान तीर्थंकर मनवाता है और अपने भक्तों को अपने चरणों मे झुकाता है तथा अन्य किसीको धर्मगुरु या साधु मानने से इन्कार करता है, इत्यादि ... । मुझे स्वीकार करना चाहिए कि उस समय अगर मेरा मन जाग्रत होता तो कुतूहलदृष्टि से इन मूढ़ संस्कारों की परीक्षा हेतु भी वह मुझे श्रीमद् के पास जाने के लिए प्रेरित करता ... अस्तु ... । कुछ भी हो, परंतु यहाँ मुख्य वक्तव्य यह है कि प्रायः सारी सुविधा होते हुए भी मैं प्रत्यक्ष रूप से श्रीमद्जी से मिल न सका, अतः उस दृष्टि से उनके प्रत्यक्ष परिचय से उनके विषय में कुछ भी कहने का मुझे अधिकार नहीं है।
उस समय प्रत्यक्ष परिचय के अतिरिक्त श्रीमद्जी के विषय में कोई यथार्थ जानकारी प्राप्त करना भी अत्यन्त कठिन था और शायद अनेक लोगों के लिए आज़ भी वह उतना ही कठिन है। दो पूर्णतः विरुद्ध धाराएँ तब भी प्रवर्तित थीं और आज भी प्रवर्तित हैं । जो उनके विरोधी हैं उनकी, श्रीमद्जी के लेखों - ग्रंथों का अध्ययन किये बिना, चिंतन - मनन के द्वारा परीक्षण किये बिना ही, एकांगी धारणा दृढ़ हो गई है, एक सांप्रदायिक मान्यता दृढ़ हो गई है, कि, श्रीमद् स्वयं धर्मगुरु बन कर धर्ममत प्रवर्तित करना चाहते थे, साधुओं एवं मुनियों को वे मानते नहीं थे, क्रियाओं का उच्छेद करते थे तथा तीनों जैन संप्रदायों को मिटा देना चाहते थे, इत्यादि। जो उनके एकान्तिक उपासक हैं उनमें से अधिकांश लोगों को श्रीमद् के लेख इत्यादि का विशेष परिचय होते हुए भी और कई लोगों को श्रीमद् के साक्षात् परिचय का लाभ प्राप्त हुआ था फिर भी, मैने देखा है कि श्रीमद् के विषय में उनका ऐसा भक्तिजनित अभिप्राय दृढ़ हो गया है कि श्रीमद् अर्थात् सर्वस्व तथा श्रीमद् राजचंद्र' पढ़ो तो उसमें सब कुछ समाविष्ट हो गया। इन दोनों अंतिम छोर पर आनेवालों के उदाहरण उनके नामों के साथ जानबुझकर ही मैं नहीं दे रहा हूँ। ऐसी पूर्णतः संकीर्ण भावनाओं वाली परिस्थिति न्यूनाधिक अंशों में आज तक प्रवर्तित