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प्राक्कथन
सही उसके अभीप्सित विद्यालय-विश्वविद्यालय की कोई हस्ती भरी स्मृति? ... | क्यों नहीं ऐसी निर्मिति यहाँ पर? ... युगोंयुगों के बाद ही पैदा होता है ऐसा फूल J इस चमन मैं, पर उसकी लेशमात्र न स्मृति? इतनी शीघ्र विस्मृति?"
परंतु इस प्रश्न-श्रृंखला का कृतघ्न, वास्तविक परिचय-पहचान विहीन विश्व से कोई प्रत्युत्तर नहीं था ...। निकट के कालखंड से पुकार रहे थे इस काल के प्रथम नहीं पहचाने गए एक परमपुरुष - 1/“सत्पुरुषों की पहचान दुर्लभ होती है।" (सं: श्रीमद् राजचन्द्र)
और इन सारे घोष-प्रतिघोषों को अपने अंतस् में संजोए हुए मैं लौटा अपने उस स्मृति-लोक से ... ।
प्रज्ञापुरुष के इस प्रज्ञा-संचयन' द्वारा उनकी स्मृति को चिरस्थाई बनाने में निमित्त सभी को, विशेषकर मूर्धन्य विद्वान् डॉ. जितेन्द्र शाह (निर्देशक, ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद) को, उनके मूल्यवान 'पुरोवचन' के लिए एवं एक अनाम मित्र को उनकी स्वल्प अर्थसहाय के लिए धन्यवाद ज्ञापन करते हुए अपनी श्रद्धांजलि दी उस परमोपकारक प्रज्ञात्मा को, उनकी अभीप्सितआदेशित प्रज्ञा विश्वविद्यालय के अब भी परिसर्जना का संकल्प लिए -
"होंगे ही पार, आप सर्व का आशीषानुग्रह आधार, छेदकर कंटक, भेदकर पर्वत-प्रतिकूल पारावार, आप सम पुरुषार्थ धार, जगाकर आत्मशक्ति आगार, श्रद्धा सभर सिद्धार्थ, जीवनान्ते - 'समाहिवरमुत्तमं धार ।।"
अपनी सारी प्रतिकूलताओं के होते हुए भी टाइपसेट - टंकन एवं मुद्रण कार्य सुचारू रूप से संपन्न कर देने के लिए श्री अंशुमालिन् शहा (इम्प्रिन्ट्स्) एवं श्री चंद्रप्रकाश (सी.पी.इनोवेशन्स्) के हम अत्यंत आभारी है। .
- प्रतापकुमार टोलिया बेंगलोर कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य एवं युगदृष्टा श्रीमद् राजचन्द्रजी जयंती - कार्तिक पूर्णिमा, १०.११.२०११