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आंतरराष्ट्रीय आत्मविद्या जैन विश्वविद्यालय दक्षिणापथ की इस साधनायात्रा में उसका बीज रोपित हुआ और उसके संधानपथों में होता रहा उसे अंकुरित करता हुआ विशद् आयोजन । परमगुरुओं ने परमकृपा की और इस अल्पात्मा को इस हेतुं योग्य समझकर 'भीतर में' और 'अतीत में' दृष्टि करवाई।
दिखाई दिया वहाँशतियों का एक बड़ा रिक्तत्व, एक असामान्य अभाव, एर महाघोर प्रमाद जैनों का - उपर्युक्त उच्च कोटि का एक भी विराट जैन विश्वविद्यालय नहीं निर्मित करने का : श्रमण संस्कृति की ज्ञान-अर्थ-तपआचार-सत्ता सर्वरूप से अतिसमृद्ध परंपरा और विरासत होते हुए भी! अन्य परंपराओं के अजन्ता-इलोरादि कलासाधनालय ही नहीं, तक्षशिला और नालन्दा जैसे विश्वविद्यालय भी निर्मित हुए ( - नालन्दा कि जहाँ श्रमण भगवान महावीर के चौदह चौदह चातुर्मास संपन्न हुए और जहाँ प्राज्ञ श्रावकजन बसते रहे, फिर भी!!) परंतु जैन विश्वविद्यालय (अभी हाल के कुछ अपर्याप्त एवं पंगु प्रयत्नों के सिवा) अंतिम २५०० वर्षों में कहीं भी नहीं!!!
इस दरिद्री दर्शन से अंतस् की गहराई में उदासी एवं वेदना से भरा हुआ एक बड़ा बेचैनीभरा अवसाद उत्पन्न हो गया...साबरमती तट पर और तुंगभद्रा तटपर उक्त उपकारक प्रत्यक्ष परमगुरुजन प्रज्ञाचक्षु पद्मभूषण डॉ. पं. सुखलालजी और योगीन्द्र युगप्रधान श्री सहजानन्दघनजी के चरणों में बैठकर अग्रजबंधु संग उसकी गहन चिन्तनाएँ चलीं, विविध आयोजन हुए, अभ्यासक्रम रचे गए, सहयोगी खोजे गए, साहित्य-संगीत के अनेक सृजन आरम्भ हुए, विश्वविदेशों में संदेश-सम्पर्क स्थापित किए गए . . . इसी बीच उक्त उपकारक महापुरुष तो महाविदेह-स्वधाम सिधार गए और अनेक अंतरायों एवं प्रतिकूलताओं के पहाड़ खड़े हुए! माथे पर एवं साथ में रह गए उनके आज्ञा, आशीर्वाद एवं महासबल प्राणबल-योगबल ...
परिणामतः भीतर में सतत अनुगुञ्जित होते रहे साबरतट एवं तुंगातट की गिरिगुफाओं के घोष-प्रतिघोष . . .
उनकी गुञ्ज-प्रतिगुञ्जों को, वीतरागवाणी को, भारत में ही नहीं, विश्वभर में अनुगुञ्जित करने के परमगुरुओं के उन परम आदेशों के अनुसार वे प्रतिगुञ्जित होती रहीं - भारत की तुंगभद्रा, कावेरी और गंगा-यमुना से लेकर अमरिका की मिसिसिपि, डल, कोलोराडो आदि, इंग्लैंड की थेम्स और योरप की वोल्गा जैसी