________________
प्राक्कथन
हो गए। परिवारजनों की प्रथमतः उन्हें अनुमति नहीं मिलने पर भी, जन्मजात साहसवृत्ति, जिज्ञासा और संकल्पबद्धता के कारण आख़िर सम्मति मिल ही गई।
अधूरे अपूर्ण साधन, अनजान प्रदेश, लम्बी यात्रा, सरल भोला साथी नानालाल, पद पद पर प्रतिवूलताएँ . . . पर इन सब से “बैठे हैं तेरे दर पे, तो कुछ करके उठेंगे" के स्वामी रामतीर्थ के संकल्प को अपनानेवाले सुखलाल कहाँ डरनेवाले थे?
वाराणसी जाते हुए बीच के स्टेशन पर दीर्घ-शंकार्थ उतरने पर गाड़ी छूट जाने पर भी दूसरी गाड़ी से दोनों भारी कष्ट उठाकर आख़िर काशी की विद्यानगरी पर पहँच गए और तीर्थसलिला गंगा के शांत सरिता तट पर विजयधर्मसूरिजी के छोटे से नूतन विद्याश्रम में जैनविद्या के एकनिष्ठ अध्ययन में डूब गए।
आख़िर वाराणसी तो पुरुषादानी प्रभु पार्श्वनाथ की नगरी । संस्कृत व्याकरण का गहरा अभ्यास प्रथम चरण था। कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य के 'सिद्धहेम शब्दानुशासन' के सारे ही अठारह हज़ार श्लोक सुखलालने शीघ्र ही कंठस्थ कर लिए और फिर जीवनभर उन्हें स्मृति में संजोये रखे! कैसी आत्मसात्-क्षमता, कैसी सुदीर्घ स्मृति !!
फिर बढ़ती गई उनकी वह जन्मजात जिज्ञासा और अप्रमत्त पुरुषार्थी वृत्ति । नूतन, नित नए विद्याविषयों में प्रवेश होता गया, व्याकरण के साथ दर्शन, न्याय
और साहित्यादि का भी अध्ययन होने लगा। जब पाठशाला का वातावरण प्रतिकूल बना तब भी, अर्थाभाव के अनगिनत, अपार संकटों के बीच भी, तपस्यापूर्वक कम खर्चे की चना आदि की खुराक खाकर पाठशाला को छोड़कर अकेले और बाद में सहपाठी व्रजलाल के साथ वे गंगातट के भदैनी घाट पर रहने लगे। परंतु विद्याध्ययन नहीं छोड़ा। वि. सं. १९६० से वि. सं. १९६३ तक का उनका यह वाराणसी का प्राथमिक विद्याकाल ही घोर संघर्षों, कसौटियों एवं प्रतिकूलताओं से भरा हुआ रहा, जो बाद में भी कोई सुविधादायक तो नहीं ही बननेवाला था। परंतु परिस्थितियों से लोहा लेनेवाले सुखलाल कहाँ रुकनेवाले थे? पैसों की तंगी, कड़कड़ाती सर्दी और चिलचिलाती हुई धूप में भी यह नेत्रहीन विद्यापिपासु रोज आर. दस मील, अपनी लकड़ी ठोकते हुए, चलकर अपने पंडित