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प्राक्कथन
कितने और कैसे गहन-गंभीर ग्रंथों का सर्जन, सर्जन ही नहीं, इन और अन्य आगम-सूत्रों, वेदोपनिषदों, बौद्ध पिटकों का स्मृति-करण भी !!! पंडितजी के सुदीर्घ सान्निध्य से हमने प्रत्यक्ष अनुभव किया कि कितनी गहरी उनकी स्मृतिसंपदा थी !!! विगत २५०० वर्षों के ऐसे समग्र जैन-बौद्ध-वैदिक ग्रंथ सारे उनकी इस स्मृति-निधि में सदा सर्वदा भरे हुए रहते थे। कोई भी प्रश्न किसी भी ग्रंथ के विषय में उनसे पूछे कि उसका संपूर्ण प्रत्युत्तर हाज़िर और वह भी उसके संदर्भ पृष्ठोंप्रकरणों आदि के साथ ! उनके धन्य कंठ में सदा विराजित साक्षात् सरस्वती और उनकी चिरंतन स्मृति में निहित ऐसे ज्ञानकोश के लिए क्या क्या कहें और लिखें?
अपनी आँखों से देखे हुए, बरसों चरण में बिताए हुए और अपने अंतस् की गहराई में बिठाए हुए ऐसे परमश्रुत, परा-विद्या के धनी प्रज्ञापुरुष के विषय में लिखते लिखते लेखनी रुक जाती है, यह कहकर कि -
___ “क्या क्या लिखें और ना लिखें? प्रज्ञापुरुषों और पुण्यत्माओं की ऊंचाईयाँ तो आकाशवत् अमाप्य हैं।" पंडितजी की इन सृजन-ऊंचाईयों की कुछ महती विशेषताएँ थीं -
आधारभूत लेखन - बिना अल्पोक्ति, अतिशयोक्ति या कल्पित उक्ति का। तुले हुए, यथार्थ शब्दों का चयन ।
सत्यशोधार्थ ऐतिहासिक दृष्टि, मतार्थ या हठाग्रह-मुक्त, निराग्रही, स्याद्वाद शैली की अनेकांतिक पद्धति। ॐ तुलनात्मक दृष्टि - पूर्वकालीन एवं समकालीन ग्रंथों का
अभ्यास । सापेक्ष अध्ययन । राष्ट्रीय और सामाजिक संदर्भो सह।। ॐ अन्य दर्शनों-धर्मों के प्रति समुदार, समन्वयात्मक दृष्टि । दर्शनोपरान्त अन्य विषयों पर भी चिंतन की समग्र दृष्टि ।
ग्रंथों से पार अंतस् की गहराई में पहुँचकर मुक्त, मौलिक चिंतनपूर्ण अनुभूति।