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प्राक्कथन
ऐसी ऋतंभरा प्रज्ञा श्रीमद् राजचन्द्रजी में थी, जिसे स्वयं ही ऋतंभरा प्रज्ञाधारक महात्मा गाँधीजी ने ही प्रमाणित किया था। देखें, परावाणी और परमसत्य के दृष्टा और उद्गाता ऐसे युगप्रधान श्रीमद्जी के द्वारा वह किस प्रकार अभिव्यक्त होती थी यह गाँधीजी के शब्दों में -
“वे (श्रीमद्जी) कई बार कहते थे कि चारों ओर से यदि कोई भाले या बरछी का घाव करे तो वह सहन कर सकता हूँ; परंतु जगत में जो झूठ, पाखंड एवं अत्याचार चल रहे हैं, धर्म के नाम से जो अधर्म प्रवर्तित हो रहे हैं, उस की पीड़ा उनसे सहन नहीं हो सकती; अत्याचारों से उनका चित्त क्षुब्ध होकर महाव्यथित होकर, विद्रोह कर बैठता था, क्योंकि यह सब उनके लिए असह्य था। यह मैंने कईबार देखा है। उनके लिए सारा जगत अपने सगे-सम्बन्धी जैसा था। अपने भाई या बहन को मरते देखकर हमें जो क्लेश होता है, उतना ही क्लेश उन्हें जगत में दुःख को, मृत्यु को, देखकर होता था।"
(- 'श्रीमद् और गाँधीजी' : सं. श्री. पुण्यविजयजी 'जिज्ञासु' पृ.८०, गुजराती से अनूदित)
श्रीमद्जी जैसे परमकृपालु युगपुरुष की कितनी करुणा ! कितनी पर-पीड़ाद्रवित जागृत, ऋतंभरा प्रज्ञा !!
/ श्रीमद्जी एवं गाँधीजी दोनों में पंडितजी द्वारा देखी और दर्शित की गई यह 'ऋतंभरा प्रज्ञा' स्वयं पंडितजी में ही निहित थी। हमने अपनी आँखों से देखा हुआ उनका साक्षात् जीवन और उनका समग्र मौलिक चिंतनपूर्ण सत्यान्वेषी ग्रंथसर्जन इसके प्रमाण हैं।
जैसा उनका गहन-चिंतन-अध्ययनपूर्ण यह ग्रंथसृजन था, वैसा ही था उनके द्वारा किया गया अनेक गहन अध्येता छात्रों और प्रबुद्ध चिंतकों का निर्माण। इन दोनों प्रकार के निर्माणों द्वारा श्रमण जैन संस्कृति को ही नहीं, समन्वयात्मक भारतीय संस्कृति को किया गया उनका प्रदान, इस युग में असाधारण है। गुजरात ने भारतीय संस्कृति को जो श्रीमद् राजचन्द्रजी एवं महात्मा गाँधीजी जैसे रत्नों का महादान दिया है उसी पंक्ति में अंतीज्ञ पंडितजी का भी स्थान है। भविष्य के इतिहासविद् द्वारा यह सिद्ध होनेवाला है।