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प्रज्ञा संचयन गुरुओं के घर पहुँचते, उनके सेवा-सुश्रुषा कर उनके प्रसन्न आशीर्वाद प्राप्त करते और किसी भी प्रकार विद्यासम्पादन का अपना उद्देश्य सिद्ध करते।
इस प्रकार वि. सं. १९६६-६७ तक का प्रायः ९ वर्ष का वाराणसी का विपदाओं से भरा विद्याकाल, अंत में 'न्यायाचार्य' की परीक्षा के समय, अंग्रेज कॉलेज प्रिन्सिपल श्री वेनिस साहब, परीक्षक श्री वामाचरण भट्टाचार्य आदि से प्रसन्न आशीर्वाद प्राप्ति, फिर सं. १९६९ की अंतिम खंड की परीक्षा में कटु अनुभव ... आदि आदि अनेक प्रसंगों से उनका गुज़रना हुआ। इस प्रकार वि.सं. १९६० से १९६९ तक वाराणसी में गंभीर विद्यार्जन में नव वर्ष गुज़ारते हुए सुखलाल हो गए ३२ वर्ष की आयु के । उनकी व्यापक दृष्टिने तब सामाजिक - राष्ट्रीय चेतना भी अपना ली।
नित्य-नूतन ज्ञान-विद्या-प्राप्ति की सदा जागृत जिज्ञासा वृत्तिने फिर न्यायदर्शन से भी आगे 'नव्य न्याय' सीखने उन्हें प्रेरित किया। इस विषय को सर्वोच्च रूप में सीखने हेतु उनकी अंतर्दृष्टि पूर्व में बिहार की मिथिला नगरी पर पहुँची। मिथिला अर्थात् ज्ञानप्राधान्य के साथ-साथ घोर दारिद्र्य की भूमि । परंतु वहाँ के ज्ञाननिष्ठ पंडितगण ज्ञानोपासना करने में अपना दारिद्र्य-दुःख गौण, विस्मृत कर देते थे।
संकल्पवान सुखलाल यह सारी पूर्व-जानकारी प्राप्त कर मिथिला पहँचे नये विद्यागुरु की खोज में। बहुत भटके । स्वयं तो दरिद्र ही, सर्वत्र पंडितगुरु भी महादारिद्र्य से भरे हुए। उसमें भी एक नेत्रहीन, गरीब को कौन पढ़ाएँ?
परंतु आख़िर एक दीन पंडितने उन्हें सीखाने आश्रय दे दिया। एक छोटी सी, पंडित के सारे परिवार की, निवास-कोठरी। उसमें इस गरीब, अंधे विद्या-अर्थी को कहाँ रखें? उन्हें बाहर बँधी हुई गाय की खुली छपरी के नीचे रहना पड़ा। पर वह भी मंजूर . . . । रात की कड़कड़ाती सर्दी में उन्हें गाय के घास खाने की जगह 'घासद्रोणी' या 'नाँद' (manger) में घास-फूस ओढ़कर एक फटे कम्बल के सहारे सो जाना पड़ता था। फूस की छपरी-झोंपड़ी और यह घासद्रोणी और मिथिला की कड़ाके की महा-सर्दी !! फिर उस पर ज़ोरों की बरसात !!!