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प्राक्कथन
बाह्यप्रकाश गया, परंतु अंतर्लोक प्रकाशित होना प्रारम्भ होने लगा और वे अग्रसर हो सके अपने इप्सित विद्या-उपार्जन के पथपर - 'प्रथमे नार्जिता विद्या'का दंश और अवसाद अब तो उनके जीवन समस्त को विद्या ही विद्या के लोक में ले जानेवाला था ।
अंधत्व के आरम्भ से वे प्रथम तो लीमली गाँव के छोटे-से क्षेत्र में आनेजानेवाले प्रायः स्थानकवासी जैन साधु- - संतों के परिचय में आकर सुन सुन कर, श्रुत-श्रवण से पारंपरिक जैन ग्रंथों और आगमों का अध्ययन करने लगे । उनका अंतर्मुख मन संतों के इस संग से विद्या के क्षेत्र में झुकने का कुछ अवसर पाने लगा । सांप्रदायिक भी सही, शुष्कज्ञान और प्रथम तो जड़ क्रियावत् ही सही, परंतु उनका इस ‘बहिर्मुख धर्मक्षेत्र' में प्रवेश हुआ। उनकी मौलिक सत्यान्वेषी प्रज्ञा उन्हें इस में से आगे चलकर विद्याभिमुख - आत्मविद्याभिमुख बनाकर छोड़नेवाली थी। उनके वि. सं. १९५२ से वि. सं. १९६० तक का बहिर्मुख विद्याध्ययन का यह 'संक्रान्ति काल' उन्हें किसी मुनिसंग के कारण 'अवधान प्रयोग' एवं 'मंत्रतंत्र साधना' की ओर भी खींचकर ले गया । परंतु शत-शत अवधानी 'साक्षात् सरस्वती' वत् श्रीमद् राजचन्द्रजी ने भी बादमें 'अवधान प्रयोग' को 'मानवर्धक' समझकर और 'ज्योतिषादि' को विशुद्ध आत्मसंपदा के सामने 'कल्पित' कहकर जैसे छोड़ दिया था, वैसे ही विशुद्ध विद्या और विवेक के सत्यान्वेषी उपासक युवा सुखलालने अवधान और मंत्र-तंत्रादि का तुरन्त त्याग कर दिया। उनकी सजग प्रज्ञा ने तब निपट आत्मार्थ को प्रधानता देते हुए चिरस्मरणीय एवं सर्व शुद्ध साधकों के लिए यह निष्कर्ष निकाला कि, 'अवधान बुद्धि को वंध्या एवं जिज्ञासा को कुंठित करने का मार्ग है और नवकार मंत्र के सिवा के मंत्र-तंत्र में आत्मार्थ का सत्यांश कम, दम्भ और मिथ्यात्व अधिक एवं अज्ञान, अहंकार, अंधश्रद्धादि कूट कूट कर भरे हुए हैं।' उनमें आत्मार्थ कहाँ, आत्मदृष्टि कहाँ, आत्मज्ञान की ज्ञानोपासना कहाँ और आत्मध्यान की अंतर्मुखता - स्वभाव सन्मुखता कहां ?
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विशुद्ध प्रज्ञा - परिचायक उनके ऐसे निष्कर्ष की प्राप्ति के मूल में था अंतस् की गहराई में, गहरे पानी पैठकर किया गया प्रशान्त अंतर्चितन। इसी से उपलब्ध आत्मोपलब्धि का ही तो संकेत किया है श्रीमद् राजचन्द्रजी ने अपने आत्मसिद्धि शास्त्र के इस टंकशाली अमृत - अनुभव में -