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प्रज्ञा संचयन
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१९९४ में हंपी में माताजी का महाप्रयाण और अभी-अभी २००९ में विमला दीदी का भी महाप्रयाण - इन सारे परम आत्मीय जनों के महाप्रयाणों ने अब प्रताप को अकेला फिर भी प्रतिकूल परिस्थितियों से लोहा लेने में सक्षम बनाकर छोड़ा है। आख़िर हमें अकेले ही तो अपना आत्मपथ काटना है। महाभारत के पुरुषार्थी योद्धा कर्ण का प्रेरणावाक्य “दैवायुत्तं तु कुले जन्मः मदायत्तं तु पौरुषम् ।", गुरुदेव का प्रतिकूलताओं में अनुकूलताएँ मानने का प्रेरणा-संदेश, श्रीमद्जी का 'अप्रमादयोग' एवं भगवान महावीर का “समय गोयम् मा पमाए ।” का परमबोध - ये सारे, पंडितजी के अपने प्रतिकूलताओं से भरे साक्षात् जीवन- आदर्श उपरान्त मेरे सम्बल - आधार बने हुए हैं। और गुरुकृपा के इन आधारों से एवं इस समर्पित जीवन के कारण स्पष्ट श्रद्धा है कि पारमार्थिक जीवन में उस चिर प्रतीक्षित विश्वविद्यालय की सर्जना-संस्थापना इस अल्पात्मा के हाथों एक दिन अवश्य होगी ही होगी और वैयक्तिक जीवन में आत्मसमाधि-पूर्वक महाविदेह प्रयाण की संभावना भी गुरु आज्ञा से सिद्ध होगी
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अंते "प्रभु आज्ञाए थाशुं ते ज स्वरूप जो ।”
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समापन-संक्षेप में, जीवनयात्रा के इन सारे उपक्रमों में सर्वत्र 'सद्गुरुकृपा ही केवलम्।' बनकर सदा-सर्वदा छाई रही है। इस में परमोपकारक पूज्य पंडितजी के प्रत्यक्ष निश्रा के १४ वर्षों के एवं परोक्ष-निश्रा के ७ वर्षों के अनंत, अपार उपकार भरे अनुभवों के विषय में क्या क्या लिखें और किस प्रकार कैसे उनके उपकारऋणों को चुकाएँ ? पूर्वोक्त सर्जन- कृतियों में किंचित् शब्दबद्ध अभिव्यक्तियों के बावजूद भी उनके जीवन-निर्माता उपकारपूर्ण अनुभव 'अवक्तव्य' ही रहे हैं, उन्हें शब्दाकार दिया नहीं जा पा रहा है। अभिव्यक्ति-अक्षम हैं ये अनुभव और ऋणप्रति-उपकार कर पाने में अक्षम है यह जीवन
"शुं प्रभु चरण कने धरूं, आत्माथी सौ हीन ।” (आत्मसिद्धि)
"क्या प्रभु चरण में धरूं ? आत्मा से सब हीन ।”
अस्तु ।
यह तो हुआ स्वकथा का कथ्य । पंडितजी से आत्मीय संबंध के कारण।