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परीषह - जयी
चाहिए। मेरी पुत्री मुझे लौटवाइए.. ऐसे धूर्तों को सजा दीजिए। "
"ऐसा ही होगा ।" कहकर महाराज ने ब्राह्मण को सांत्वना दी। मंत्री से कहकर अपने सेवकों के साथ ब्राह्मण को लेकर उस उद्यान में पहुँचे जहाँ जैनमुनि श्री सूर्यमित्र अपने संघस्थमुनि अग्निभूति के साथ ठहरे थे । उन्हें देखकर राजा ने उन्हें नवधि भक्ति पूर्वक वंदन कर नमोस्तु कह कर उनकी कुशल क्षेम पूछकर ओर बैठ गये ।
"यही है वह साधू - महाराज ! इसी ने मेरी पुत्री को बहकाया है । " नागशर्मा ने महाराजश्री की वंदना करने के विवेक को ही चूक गया। और क्रोध से पुनः अपना दुखड़ा रोने लगा ।
ब्राह्मण के इस व्यवहार को देख राजा को क्रोध आया। पर, मुनिश्री सूर्यमित्र ने उन्हें रोका। और, नागशर्मा को आशीर्वाद देकर बैठने का इशारा किया। " महाराज श्री यह विप्र कह रहा है कि नाग श्री आपकी पुत्री है! मेरी समझ में यह बात नहीं आई । "
" राजन् ! यह सत्य है" गंभीर स्वर में मुनि जी बोले ।
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'नहीं महाराज ! यह झूठ है । मेरी लड़की मुझे दिलवाइए ।" ब्राह्मण
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बोला ।
'महाराज मुझे समझ में नहीं आता क्या सत्य है । इसका रहस्य क्या है "देखिये राजन यह सत्य आप लड़की से ही जान लें । यदि ये उसके पिता होते तो उसे पढ़ाते योग्य बनाते । मैंने इस लड़की को शास्त्राभ्यास कराया है । इसे सत्य और तथ्य से अवगत कराया है । राजन पिता वह है जो संतान को विद्या का • संस्कार दे । विद्याधन से समृद्ध करे । मैंने ऐसा किया है । उसे व्रताराधना कराके उसे नरक के दुःखों से छुड़ाया है ।"
"मैं कुछ समझा नहीं महाराज ।" राजाने हाथ जोड़कर कहा ।
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'महाराज यह पुत्री नागश्री मेरे साथी मुनि अग्निभूति के पूर्वभव का भाई वायुभूत है । मुनिनिंदा के कारण वह आर्त रौद्र ध्यान के कारण कोढ़ के रोग से पीड़ित होकर मरण की शरण गया । कुकर्म के कारण इसने गधा, जंगली सुअर, कुत्ती एवं चाण्डाल के घर दुर्गन्धा पुत्री के रूप में जन्मी । पिताने दुर्गन्ध के कारण इसे त्याग दिया । यह मरणासन्न थी आयु अत्यल्प थी अतः उस समय इसे ज्ञान
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