Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 135
________________ Arrrrrr परीपह-जयी xxxxxxxxxxx कार्य का प्रारम्भ करो तो प्रारम्भ में ही 'णमो अरिहन्ताणम् 'मन्त्र का स्मरण किया करो ।' कहते हुए आकाशमार्ग से विहार कर गए । सुभग ग्वाला मुनि महाराज के निर्देशित मंत्र को महान उपलब्धि मानकर दृढ़ श्रद्धा के साथ प्रत्येककार्य के प्रारम्भ में उसका जाप करने लगा । वह उठते-बैठते, गाय चराते, भोजन करते सभी कार्यों का प्रारम्भ इस महामन्त्र से करता । सेठ वृषभदास ! तुम भी उसकी ‘णमोकार ' मंत्र पर दृढ़ आस्था देखकर उससे अनुराग करने लगे और उसे उत्तम भोजन ,वस्त्र आदि की सुविधाएँ देकर वात्सल्य भाव से रखने लगे । एक बार जब उसे पता चला कि उसकी भैंसे गंगा के पार चली गई हैं तो वह उन्हें वापिस लाने के लिए गंगा में कूद पड़ा । तैरते समय एक पैनी लकड़ी का भाग उसके पेट में धंस गया ,खून के फब्बारे छूटने लगे । जब ग्वाले को लगा कि उसका अन्त निकट है तो ‘णमो अरिहन्ताणम् ' का उच्चारण करते हुए उसने यह भावना धारण क्री कि मैं अपने अगले भव में भी आपने मालिक सेठ वृषभ दास के यहाँ जन्म लूं -उनका पुत्र बनूँ और उनकी सेवा करता रहूँ । अन्तिम समय के इस शुद्ध परिणाम और शुभ भाव के कारण सुभग ग्वाला का जीव पुण्यकर्म के उदय से तुम्हारी पत्नी के गर्भ में अवतरित हुआ है और वही जन्म लेकर यशकीर्ति को प्राप्त करेगा, परन्तु आत्मोद्धारक भी बनेगा | महाराज ने सेठानी के गर्भ में अवतरित जीव का पूर्व वृत्तान्त कह सुनाया । सेठ-सेठानी दोनों सन्तुष्ट होकर घर आये । ज्यों ज्यों गर्भ स्थित बालक वृद्धिगत होता गया ,त्यों-त्यों सेठ के यश और कीर्ति में वृद्धि होने लगी । गर्भ की वृद्धि के साथ सेठानी जिनमती का शरीर कुछ कृश अवश्य हुआ परन्तु चित्त की प्रसन्नता अनेक गुनी बढ़ गई । उनका मन निरन्तर पूजा, स्वाध्याय, जप, दान पुण्य के लिए अधिक सक्रिय होता गया । चम्पापुर नगर में सेठ वृषभदास के द्वारे आज उत्सव का आनन्द छाया हुआ है | हवेली को विशेष रूप से सजाया गया है ,द्वार पर मंगलवाद्य की ध्वनि गूंज रही है । सभी कर्मचरियों के मन उत्साह से भरे हैं । दास--दासियाँ मुहँ मागा इनाम पाकर प्रसन्न हैं । सेठ वृषभदास ने गरीबो के लिए अपना भण्डार ही खोल दिया है । सभी उन्हें हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं । बधाई देने वालों का ताँता लगा हुआ है । सभीका स्वागत उत्तम भोजन कराके किया जा रहा है । गण्यमान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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