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परीषह - जयी
नहीं था । "दूत ने राजा को सेना के बारे में बताया । उन्होंने विस्तार से सेना का वर्णन किया । दोनों ओर से एक प्रकार का युद्ध ही छिड़ गया । राजा ने देखा कि शत्रु की सेना बढ़ती ही जा रही है और उनके सैनिक मरण की शरण हो रहे है । वे भी आश्चर्य चकित थे ।
'महाराज आप युद्ध करना छोड़ दे । सुदर्शन निर्दोष हैं । अक अजनबी न महाराज को आश्चर्य में डूबा देखकर कहा
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“तुम कौन हो
राजा ने जिज्ञासा से पूछा ।
"महाराज मैं यक्ष हूँ । यह सारी सेना मेरी है । आप रानी के गलत बहकावे में आकर एक साधु पुरूष का वध करने का पाप करने जा रहे हैं । यक्ष मे रानी के कक्ष की घटना राजा को सुनाई ।
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राजा ने जब सत्य को जाना तो उसे पश्चाताप हुआ । उसने सुदर्शन के चरणों में गिरकर क्षमा याचना की । अपनी विवेकहीनता पर पश्चाताप किया । निर्विकार भाव से समाधि में लीन सुदर्शन तो जैसे इन सब अनभिज्ञ थे । उन्हें राजा या रानी किसी पर कोई रोष नहीं था । इसे वे अपने अशुभ कर्मों काही फल मानकर उपसर्ग के रूप में सहज भाव से सहन कर रहे थे । रानी अभयमती ने जब अपनी दूती द्वारा इस चमत्कार की बात सुनी तो वह भयभीत हो गयी, और महल से भागकर एक वृक्ष से लटककर उसने आत्महत्या कर ली । दुर्ध्यान से मरने के कारण रानी नीच योनि में व्यंतरी हुई ।
सुदर्शन सेठ अभी भी ध्यानस्त मुद्रा में बैठे थें । चेहरे पर परमशान्ति है ॥ 'श्रेष्टिवर सुदर्शन मुझे क्षमा करे । विवेकहीन होकर मैंने आप के साथ जो अन्याय न अत्याचार किया है । उसके लिए मैं शर्मिन्दा हूँ । मैं अपने अपकृत्य के लिए आपका क्षमाप्रार्थी हूँ । प्रायश्चित के रूप में मैं चाहता हूँ कि आप मुझे क्षमा करें, एवं मेरा आधा राज्य स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करें ।
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" महाराज मुझे राज्य से कोई प्रयोजन नहीं । मैंने तो उस समय जब धाय पण्डिता मुझे स्मशान से ले जा रही थी, तभी प्रतिज्ञा कर ली थी कि यदि इस उपसर्ग से मैं जीवित रहूँगा तो, और यदि मुक्ति प्राप्त करूँगा तो पुनः गृहस्थ जीवन में प्रवेश नहीं करूँगा । मैं जिनेश्वरी दीक्षा धारण करके आत्मकल्याण करूँगा । अतः अब मेरा जब गृहस्थ जीवन में ही लौटने का इरादा नहीं है तो फिर राज्य लेने का प्रश्न ही कहाँ ? राजन् आप को क्षमा मांगने की आवश्यकता
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