Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 145
________________ X परीषह-जयीXXXXXXX आज अष्टमी का दिन है । सुदर्शन सेठ सूर्यास्त होने पर श्मसान में जाकर समाधि में बैठे थे । प्रतिक्रमण के पश्चात सामयिक में लीन हो गए थे । पण्डिता धाय उसी स्मशान में जाकर जब वे समाधि में थे उन्हें अपने कंधे पर उठाकर महल में रानी अभयमती के कक्ष में ले आयी । आज कंधे पर मिट्टी की मूर्ति नहीं थी , समाधिस्थित सेठ सुदर्शन थे । सभी द्वारपालों ने समझा कि रोज की तरह धाय मां रानी की पूजा के लिए मिट्टी की ही मूर्ति ही ले जा रही है । अतः किसी ने उन्हें रोका-टोका नहीं । जब सुदर्शन की समाधि टूटी ,और अपने आप को सजे-धजे राजमहल में पलंग के ऊपर पाया तो वे आश्चर्य में डूब गये । "क्यों चकित हो रहे हैं । सेठजी ? "आप इस समय महारानी अभयमती के शयनकक्ष में हैं । हे प्रिय! आपका सुदर्शन रूप और मेरा यौवन आज एक होकर आनन्द लोक में विहार करेंगे । कामोत्तेजक रानी ने अपनी बाहें सुदर्शन के गले में डाल दी। ___ “महारानी जी आपने यह क्या अनर्थ किया । रानी तो माँ के समान होती है । फिर मैं तो पुरूषत्वहीन नपुंसक हूँ।" सुदर्शन ने विनयपूर्वक कहा । ___ “प्यारे सुदर्शन तुम कपिला को बेवकूफ बना सकते हो ,मुझे नहीं । मैंने तुम्हारी प्रशंसा भी सुनी और तुम्हारे दर्शन से मैं घायल हो गयी । प्यारे इस रूप को भोगो और आनन्द प्राप्त करो । यौवन को संयम मे कसकर बरबाद मत करो । प्रिय यह वसन्त की रात, रजनीगन्धा की सुगन्ध ,देखो अष्टमी का दमकता हुआ चन्द्र ,मन्द समीर के झोंके ,यह एकान्त और खुला यौवन क्या तुम्हें उद्दीप्त नहीं करता ?" रानी ने अनेक काम चेष्टाएँ करते हुए कहा । “रानी देह तो रुधिर और मांस का पुतला है। यह अनन्त रोगों का घर और घिनोना है । यह तो वह फूटा घड़ा है ,जिससे गन्दगी निरन्तर बहती रहती है । यह शरीर मरणधर्मा है । बढ़ापा इसे दबोच लेता है । ऐसे शरीर का मोह क्यों ? रानी जी इस गन्दे शरीर में जो पवित्र आत्मा है उसका चिन्तन करो , यही आचार्यों का उपदेश है । मैं चाहता हूँ कि तुम भी विषय वासना के नागपाश से मुक्त हो जाओ । रानी मैं एक पत्नीव्रत का धारक हूँ तुम्हारी कामोत्तेजक चेष्टाएँ तुम्हारा नरकगति का बन्ध कर रही हैं । "सुदर्शन ने रानी को समझाने का प्रयत्न किया । रानी ज्यों-ज्यों अधिक कामोत्तेजक होकर सुदर्शन पर वाणी या दृष्टि के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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